ग़ज़ल
झूठों के संग रहना भी है
सच्ची सच्ची कहना भी है
पास अदा का जादू है तो
लाज-शरम का गहना भी है
अब क्यों उठतीं सबकी नजरें
अब तो सब कुछ पहना भी है
यों तो है कितनी आजादी
पर कितना कुछ सहना भी है
चारों ओर खड़ी दीवारें
लेकिन इनको ढहना भी है
खुद को कैसे साहिल कर लें
दरिया हैं तो बहना भी है
— डाॅ कमलेश द्विवेदी