अलगनी पर सूखते कपड़े
जब भी गुजरती हूँ
मोहल्ले
कस्बे
नगर
महानगर से
घरों की छत ,आँगन
अलगनी पर दिखतें हैं
सूखते कपड़े
अलगनी पर सूखते कपड़े
चुगली करते हैं
उस घर में रहने वालों की,
उनकी स्थिति- परिस्थिति की,
संपन्नता-विपन्नता की,
उनकी विवशता की।
दर्शा जाते हैं
उनके दुःख- सुख को,
टटोल जाते हैं
उनका समूचा अस्तित्व।
युगों युगों से अलगनी पर सूखते कपड़े
उठाते रहे हैं उंगलियां
उन विवश निर्धन कमजोर
घरों की ओर।
अलगनी पर सूखते कपड़ों की
सिलने उखड़ी हुई
टूटे बटन ,फटे-पुराने
कई -कई छेद वाले
पुराने बदरंग से
कपडे यूँ ही सूखते रहे हैं
अलगनी पर हमेशा – हमेशा
हर काल में, हर युग में यूँ ही।
— डॉ. शैल चन्द्रा