धरती कभी किसी की नहीं हुई
बातें बीते समय की थीं
अपने परायों की यादें
अपनों ने लगाए घात
हर बार अपनी बात
बातें नई पुरानी थीं
सब कुछ पाने की चाहत
शुकुनि मामा बनकर
दुर्योधन को साथ लिया
फिर चली एक कुचाल
समय को मुट्ठी मे भरने हेतु
आसमान पर नजर गढाए
अपने को अपनी नजर से
गिरा कर अपने को मिटा लिया
मिला कर दूसरे का अधिकार
कर्तव्य भी अपना गंवा लिया
क्या मिला तब अंधकार में
जो खुद कभी नहीं था तेरा
कैसा कुचक्र चला लिया
अरे मूर्ख! सम्पूर्ण जगत में
शाश्वत क्या है यहाँ धरा में
कल यही तेरा था
आज यही मेरा है
तेरे मेरे के चक्रव्यूह में
एक मुट्ठी आसमान हाथ
से लालचवश गंवा लिया
गीता में समझाया समझ ले
न यह तेरा था और न मेरा है
सदियों से चलती आई रीत
झुठलाने की खातिर तुमने क्या
अपने को श्रीकृष्ण भगवान ही
समझ आत्मघात कर लिया
— वीरेन्द्र शर्मा वात्स्यायन