रात
जब रात होती है स्थिर
बस एक घड़ी की सुई टिकटिक
इस खामोशी के आवरण में
तुम्हारा ख्याल मन की दीवारों से टकराकर
उतर आती है तकिए के सिरहाने
और करने लगती है संवाद
वक्त को भुलाकर नींद के पर्दे को हटाकर
ये आंखें सींचने लगती है तुम्हारे साथ का सानिध्य
उत्तेजाओं का स्पंदन
सुकून की मखमली डोर में बांध लेती है
और चाहती है उन रूहानी पलो पे
सम्पूर्ण आधिपत्य की एकाग्रता
उतरना चाहती है रात पलकों के किनारे से नयनों में
पर चुरा ले जाती है तुम्हारा सुखद सामीप्य उन्हें
रात रात नहीं होती फिर
उजली चादर में लिपटी एहसासों की अनगिनत रुईयां
लम्हों के रेशे-रेशे में गर्माहट भर देती है
ये तन्हाई भी कितनी खूबसूरत होती है न !