ग़ज़ल
उसकी भाषा ख़राब है फिर भी।
खूब हाज़िर जवाब है फिर भी।
कोई देता नहीं है भाव मगर,
हाथ में इक गुलाब है फिर भी।
उम्र सत्तर बरस की है लेकिन,
उसके चेहरे पे आब है फिर भी।
रोज़ सेवन करे मलाई का,
कहता किस्मत खराब है फिर भी।
तन में बाक़ी नहीं रही ताक़त,
जाहिरी रौब दाब है फिर भी।
— हमीद कानपुरी