हेमू कालाणी : अंग्रेजी शासन के विरुद्ध उठा किशोर सिंधी स्वर
पुण्यतिथि 23 जनवरी पर विशेष
भारतीय स्वाधाीनता संग्राम के पावन यज्ञ में हजारों क्रान्तिकारियों ने अपने श्वासों की समिधा होम की है। रक्त की अंतिम बूंद तक अंग्रेजी सैन्य शक्ति से लोहा लिया है। मां भारती को स्वातंत्र्य सिंहासन में आरूढ़ाभिषेक करने हेतु प्राणों की बाजी लगा दी। फांसी के फंदों को कंठहार मान स्वयं गले में धारण कर लिया। भारत माता की जय और इंकलाब जिंदाबाद के जय घोष होंठों पर पुण्य श्लोंक एवं ऋचाओं की भांति सुशोभित रहे। अंग्रेजी शासन के जुल्म अत्याचार सहे पर टूटे नहीं, झुके नहीं। लौकिक सुख, लाभ, लालच एवं ऐश्वर्य के प्रलोभनों को ठुकराकर देश की सेवा-साधना का कंटकाकीर्ण मार्ग चुना एवं सतत गतिमान रहे। ऐसे ही वीर नर-नाहरों की शृंखला में सिंध प्रदेश के किशोर बलिदानी हेमू कालाणी का नाम जाज्ज्वल्यमान है। अंग्रेजी सरकार का भयभीत होना दृष्टव्य है कि राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत हेमू कालाणी को 19 वर्ष की अल्पायु में 23 जनवरी 1943 को फांसी पर चढ़ा दिया गया था, ताकि विद्रोह का कोई स्वर पुनः फूटे नहीं। पर हेमू की फांसी ने न केवल सिंध में बल्कि सम्पूर्ण देश के रक्त में ज्वार ला दिया।
हेमू कालाणी का जन्म 23 मार्च 1923 को अविभाजित भारत के सिंध प्रदेश के सक्खर गांव में हुआ था। पिता पेसूमल कालाणी ईंट-भट्ठे का व्यवसाय करते थे। माता जेठीबाई गृहिणी थीं। हेमू ने गांव के ही प्राथमिक विद्यालय में कक्षा 4 तक पढ़ाई की। आगे की पढ़ाई के लिए सक्खर स्थित हाई स्कूल में प्रवेश लिया। वहां नया परिवेश और नये साथी मिले। खेलकूद में रुचि के चलते तैराकी, खो-खो, कबड्डी, वालीबॉल आदि खेलों में भाग लेते। तैराकी और दौड़ में प्रथम स्थान अर्जित कर कई पुरस्कार प्राप्त किये थे। पेड़ों पर सरपट चढ़ जाने की कला में माहिर थे। आपके व्यक्तित्व में ऐसा चुंबकीय आकर्षण था कि हर कोई आपसे बात करना चाहता, आपका मित्र होना चाहता था। इसलिए जल्दी ही आप स्कूल में लोकप्रिय हो गए। आपमें प्रकृति प्रदत्त नेतृत्व क्षमता थी। आप सक्खर की ‘स्वराज्य सेना’ के सक्रिय सदस्य थे। न केवल हमउम्र बच्चे एवं किशोर बल्कि बड़े भी आपकी बातें ध्यान से सुनते। उल्लेखनीय है कि सात वर्ष की छोटी सी आयु में ही चरखायुक्त तिरंगा ध्वज लेकर बच्चों की टोली के साथ गांव की गली मुहल्ले में प्रभात फेरी निकालते। पहले तो लोगों ने बच्चों का खेल ही समझा पर जब वे हेमू की ऊंची गम्भीर बातें सुनते तो अचरज करते। अब तो यह नित्य का ही क्रम बन गया। हेमू एक लम्बे बांस पर ध्वज बांधते और किशोरों की टोली का नेतृत्व करते हुए नगर के मुख्य मार्गों पर निकल पड़ते। वह लोगों को अंग्रेजी शासन से मुक्ति हेतु लड़ने को प्रेरित करते। विदेशी वस्तुओं का वहिष्कार कर होली जलाते और दैनंदिन जीवन में स्वदेशी वस्तुओं के अधिकाधिक उपयोग पर बल देते ताकि देश का धन देश में ही रहे। वह लोगों को समझाते कि देश के विकास के लिए दमनकारी, जुल्मी, शोषक अंग्रेजी शासन की दासता से छुटकारा जरूरी है। हेमू के क्रियाकलाप अंग्रेजी शासन के खुफिया विभाग से छिपे न रह सके। फलतः उन पर नजर रखी जाने लगी। हेमू लोगों से कहते कि चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु आदि क्रांतिकारियों के बलिदान को व्यर्थ नहीं जाने देंगे। देखना एक दिन मैं भी भगत सिंह की तरह ही फांसी के फंदे पर झूलकर अंग्रेजो की कारा में कैद भारत माता के आजादी हेतु अपनी आहुति दे दूंगा। कौन जानता था कि उसके कहे शब्द एक दिन सत्य हो जायेंगे।
महात्मा गांधी ने 1942 में जब अंग्रेजो भारत छोड़ो का आन्दोलन चलाया तो हेमू कालानी ने सिंध में आंदोलन की बागडोर अपने हाथों में थाम ली। वे जत्थे के जत्थे लेकर नगर में घूमते और अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने का आह्वान करते। एक दिन इन्हंे अपने साथियों से सूचना मिली कि बलूचिस्तान के कोटा में स्वतंत्रता का दमन करने हेतु अंग्रेजी सेना का एक खूंख्वार सैन्य दस्ताघातक हथियारों का जखीरा लेकर रेलगाड़ी से गुजरने वाला है। योजना बनाई गई कि रेलगाड़ी को रोककर हथियार लूट लेने हैं। तय समय पर साथियों को लेकर हेमू रेल पटरी उखाड़ने के काम में जुट गये। पर खट-खट की आवाज से पटरी की सुरक्षा पर तैनात एक सिपाही की नजर इन पर पड़ गई। वह इन्हें पकड़ने को दौड़ा। हेमू ने अपने साथियों भाग जाने दिया और मोर्चे पर स्वयं डटे रहे। आखिकार पकड़े गये। कोर्ट में केस चलाया गया और अंत में हेमू कालाणी को फांसी की सजा दे दी गई। यह खबर सुनकर पूरा सिंध सन्न रह गया। इस फैसले के विरुद्ध आवाजें उठने लगीं। सिंध के संभ्रान्त नागरिकों ने वायसराय को पत्र लिखकर फांसी की सजा माफ करने की अपील की। वायसराय एक शर्त के साथ फांसी माफ करने को तैयार हो गये कि हेमू अपने सभी साथियों के नाम और पते बता दें। हेमू ने यह शर्त मानने से साफ इंकार कर दिया। नेतृत्व की परीक्षा ऐसे संकट और दुर्दिन के समय में ही हुआ करती है। सच्चा नेता वही होता हे तो हर आघात को अपने सीने पर सहन कर अपने अनुयायी और समर्थकों के लिए ढाल बन जाये। हेमू ऐसा ही वीर था। आखिर, 23 जनवरी, 1943 की प्रातः बेला को मां भारती का यह वीर सपूत स्वतंत्रता के अनुष्ठान की बेदी पर समिधा बन समर्पित हो मां के आंचल की छांव में चिर निद्रा में सो गया।
भारत सरकार ने हेमू के अवदान को रेखाकिंत करते हुए 1983 में 50 पैसे का एक डाक टिकट जारी कर अपनी श्रद्धा अर्पित की। वहीं देश के तमाम नगरों में चैराहों और सड़कों के नाम हेमू कालाणी के नाम पर रखे गये। दिल्ली में एक स्कूल का नामकरण शहीद हेमू कालानी सर्वोदय बाल विद्यालय किया गया। मुम्बई में सिंधी बाहुल्य एक उपनगर का नाम हेमू कालाणी नगर रखा गया। संसद भवन में डिप्टी स्पीकर के कक्ष के सामने एक भव्य प्रतिमा स्थापित की गई है। हेमू कालाणी का बलिदान हमें सदा सत्पथ दिखाता रहेगा। हर आने वाली पीढ़ी उनके बलिदान को स्मरण करते हुए उनकी यश पताका फहराती रहगीे।
— प्रमोद दीक्षित मलय