इतिहास

अब पराक्रम दिवस के रूप में मनाई जायेगी सुभाष जयंती

भारत माता को ब्रिटिश शासन सत्ता से मुक्ति के लिए हुए स्वाधीनता संघर्ष में एक व्यक्तित्व महानायक बनकर उभरा जिसे नेता जी विश्व सुभाष चन्द्र बोस के नाम से जानता है। उल्लेखनीय है कि 21 अक्टूबर 1943 को सुभाष बाबू ने आजाद हिन्दुस्तान की अंतरिम सरकार बनाई जिसमें राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और युद्धमंत्री का दायित्व स्वयं निर्वहन किया। इस आजाद हिन्द सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, चीन, इटली, आयरलैण्ड आदि 9 देशों ने मान्यता प्रदान की थी। मां भारती के इस तपःपूत सुभाष बोस की जयंती देश में अब पराक्रम दिवस के रूप में मनाई जायेगी। 125वीं जयंती के अवसर पर भारत सरकार द्वारा एक डाक टिकट एवं 125 रुपये मूल्य का स्मारक सिक्का भी जारी किया गया। पांच विश्वविद्यालयों में सुभाष बोस के नाम पर पीठ स्थापित की जायेंगी।
सुभाष चन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक में एक बंगाली परिवार में प्रतिष्ठित वकील जानकी नाथ बोस एवं प्रभावती की 9वें संतान के रूप में हुआ था। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा पूरी कर सुभाष ने 1915 में इंटरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण की। 1919 में बी.ए. आनर्स प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर कलकत्ता विश्वविद्यालय में दूसरा स्थान प्राप्त किया। आईसीएस परीक्षा में बैठने हेतु सुभाष 1919 में इंगलैण्ड के लिए रवाना हुए और आईसीएस परीक्षा न केवल उत्तीर्ण की बल्कि चैथा स्थान भी हासिल किया। किन्तु हृदय में धधक रही देशप्रेम की ज्वाला के कारण अंग्रेजांे की चाकरी को स्वीकार न कर भारत माता की सेवा-साधना का कंटकाकीर्ण पथ अंगीकार किया। फलतः सेवा से त्यागपत्र देकर जून 1921 में भारत वापस आकर महात्मा गांधी की सलाह पर सुभाष कलकत्ता आकर देशबंधु जी के साथ काम करने लगे। चितरंजन दास का उस समय बंगाल में बहुत प्रभाव था। देशबंधु जब कलकत्ता महापालिका के महापौर बने तो सुभाष को महापालिका का मुख्य कार्यकारी अधिकारी बनाया। यह सुभाष के सार्वजनिक जीवन की शुरुआत थी। यहां पर सुभाष ने अपनी कार्यशैली और दूरदृष्टि का परिचय देकर काफी नये और महत्वपूर्ण काम किए जिससे उनकी कार्यशैली और राजनीतिक सोच से सभी परिचित हुए और उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई। उनके जीवन में समय पालन, लक्ष्य के प्रति समर्पण और अनुशासन का बहुत प्रभाव रहा जिसकी पृष्ठभूमि में विद्यार्थी जीवन में ही टेरीटोरियल आर्मी में रंगरूट के रूप में प्राप्त सैन्य प्रशिक्षण था। 1929 में कांग्रेस के अधिवेशन में सुभाष बाबू ने खाकी सैन्य गणवेश में उपथित होंकर अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू को सलामी दी। और आगे चलकर यही सैन्य अनुशासन ‘आजाद हिन्द फौज’ के गठन का दृढ आधार भी बना। 1933 से 1936 तक स्वास्थ्य लाभ के लिए यूरोप में रहना हुआ। उस अवधि में आपने इटली के नेता मुसोलिनी और आयरलैण्ड के नेता डी. बलेरा से भेंट-विमर्श कर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए सहयोग का वचन लिया।
कांग्रेस दल और देश में सुभाष की लोकप्रियता उफान पर थी। 1938 में हरिपुरा में आयोजित कांग्रेस के 51वें अधिवेशन में गांधी जी ने सुभाष को अध्यक्ष मनोनीत किया और सम्मान में 51 बैलों द्वारा इनके रथ को खींचा गया। उस अवसर पर अध्यक्ष के रूप में दिया गया सुभाष का ओजस्वी भाषण दुनिया के प्रमुख भाषणों में शुमार किया जाता है। अध्यक्षीय कार्यकाल में आपने जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में ‘योजना आयोग’ और विख्यात अभियंता विश्वेश्वरैया के नेतृत्व में ‘विज्ञान परिषद’ बनाई। कांग्रेस में सुभाष के बढ़ते प्रभाव और कार्यकर्ताओं पर मजबूत होती पकड़ से कांग्रेस के अन्दर ही कुछ नेताओं का प्रभामंडल कमजोर होने लगा। और वे सुभाष को कमजोर करने की चालें चलने लगें। गांधी जी से भी मतभेद हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में अध्यक्ष पद के चुनाव में गांधी समर्थित प्रत्याशी पट्टाभि सीतारमैया को पराजित कर दिया। गांधी जी से मतभेद शान्त होने की जगह बढ़ता गया। सुभाष समझौते की रास्ता तलाशते रहे पर सभी उपाय व्यर्थ गये। गांधी कहने पर कार्यकारिणी के 15 पदाधिकारियों में से दो को छोड़कर शेष ने त्यागपत्र दे दिया। तो दल की एकता और देश की मजबूती के लिए सुभाष ने विवश होकर अध्यक्ष पद से दस्तीफा दे दिया और कांग्रेस के अन्दर ही ‘फारवर्ड ब्लाॅक’ बनाकर काम करने लगे। लेकिन उन्हें कांग्रेस से निकाल दिया गया। अंग्रेजी शासन ने उनको घर पर नजरबन्द कर दिया। पर सुभाष तो दूसरी ही मिट्टी के बने थे, उन्हें कैद रखना अंग्रेजो के लिए आसान न था।
जनवरी 1941 में अपने घर पर नजरबंदी के दौरान ही एक पठान के रूप में सुभाष निकल भागे और पेशावर, काबुल, मास्को होते हुए जर्मनी पहुंचे। हिटलर एवं जर्मनी के अन्य नेताओं से भेंट की और ‘आजाद हिन्द रेडियो’ की स्थापना की। वहां से आप जापान पहंुच कर जनरल तोजो से मिले और जापानी संसद को सम्बोधित किया। रासबिहारी बोस के मार्गदर्शन में ‘आजाद हिन्द फौज’ का गठन कर सिपाहियों और नागरिकों का आह्वान किया कि ‘तुम मूझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’। 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर में टाउन हाॅल के सामने आजाद हिन्द फौज के वीर सिपाहियों के सम्मुख ओजस्वी भाषण देते हुए ‘दिल्ली चलो’ का नारा दिया था। 1943 में अंतरिम सरकार बनाई। जापान सरकार द्वारा अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह सुभाष बाबू की उस अस्थायी सरकार को भेंट किए गये थे जिसे सुभाष ने ‘शहीद’ और ‘स्वराज्य’ नाम दे अमर कर दिया। उस अस्थायी सरकार के गठन के 75 वर्ष पूर्ण होने के सुअवसर पर अक्टूबर 2018 में भारत के प्रधानमंत्री मा0 नरेन्द्र मोदी द्वारा लालकिले पर तिरंगा ध्वज फहराकर उसके महत्व को रेखांकित किया गया।
द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद सुभाष आजादी की लड़ाई हेतु आवश्यक संसाधन जुटाने हेतु रूस जाने का निश्चय कर 18 अगस्त 1945 को हवाई जहाज से निकले किन्तु रास्ते में ही वे लापता हो गये। कहा गया कि उनका हवाई जहाज ताईवान में दुर्घटनाग्रस्त हो गया जिसमें सुभष चन्द्र बोस की मृत्यु हो गई। हालांकि ताईवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बताया था कि उस दिन ताईवान के आकाश में कोई विमान दुर्घटना हुई ही नहीं। सुभाष जीवित रहे या विमान दुर्घटना का शिकार हुए, यह सत्य तो काल के गर्भ में है पर कोटि-कोटि भारतवंसियों के हृदय में वह सदा सर्वदा जीवित रहेंगे। भारत माता के प्रति उनकी अनन्य भक्ति और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए किया गया अनथक अदम्य प्रयास उन्हें चिरकाल तक अमर रखेगा।

— प्रमोद दीक्षित ‘मलय’

*प्रमोद दीक्षित 'मलय'

सम्प्रति:- ब्लाॅक संसाधन केन्द्र नरैनी, बांदा में सह-समन्वयक (हिन्दी) पद पर कार्यरत। प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में गुणात्मक बदलावों, आनन्ददायी शिक्षण एवं नवाचारी मुद्दों पर सतत् लेखन एवं प्रयोग । संस्थापक - ‘शैक्षिक संवाद मंच’ (शिक्षकों का राज्य स्तरीय रचनात्मक स्वैच्छिक मैत्री समूह)। सम्पर्क:- 79/18, शास्त्री नगर, अतर्रा - 210201, जिला - बांदा, उ. प्र.। मोबा. - 9452085234 ईमेल - [email protected]