ग़ज़ल
जश्न मिलकर फिर मनाने आ गये।
प्यार का दरिया बहाने आ गये।
ऐशो इशरत के ज़माने आ गये।
हाथ मेरे कुछ ख़ज़ाने आ गये।
कुम्भ में जब सब नहाने आ गये।
पुण्य कुछ हम भी कमाने आ गये।
साथियों का साथ पाने आ गये।
गीत ग़ज़लें गुनगुनाने आ गये।
काम कोई खास यूँ तो है नहीं,
आप का बस साथ पाने आ गये।
दिखरहा था घुप अँधेरा इस तरफ़,
दीप हम यूँ कुछ जलाने आ गयो।
झूठ जिनको बोलना आता न था,
अब उन्हें ढेरों बहाने आ गये।
प्रेम जब से हो गया मुझको हमीद,
ख़्वाब पलकों पर सजाने आ गये।
— हमीद कानपुरी