जादूगर मुखौटे
मन के
गहरे भावों को
तुम
शब्दों में
तलाशते
बारीकियों से तराशते
फिर
छूते उन्हें
नर्म गुलाबी जादुई हाथों से
रुप देते
उन शब्दों को
और फिर
बड़ी नज़ाकत से
अनुभूतियों की
करते हुए
फसल उगाही
रच देते हो
सबसे सुंदर कविताएँ
और साहित्य की अनसुनी
विधाओं में रचनाएँ
एक उफान
एक सैलाब के साथ
बिना आहट के
कमान से
छोड़ते हो तीर
जो,
बयाँ करती
किसी स्त्री की खुबसूरती ..
तुम
एक विशाल विस्तृत अशेष
अछोर
शब्दकोश हो
कि संभव है
हर स्त्री
प्रेम कर बैठे
उन शब्दों के
सैलाब से
उन शब्दों की
कोमलता से
उस स्याह से भी
जिससे तुम
खेलते हो
होली
और मुस्कुरा उठते हैं
कुछ पन्ने
मगर !
सब खोखलापन…
बनावटीपन…
सा लगता है मुझे
और तुम
दोहरी मानसिकता का
आवरण ओढ़े
एक बहेलिया
जो,
वर्णमाला का
जाल बुन
क़ैद करते हो
किसी की संवेदनाओं को
जीर्ण-शीर्ण करते
और खेलते
उनके जज़्बातों से
और फिर
विलुप्त हो जाते हो
एक दिन
किसी विलुप्त हुयी
भाषा की तरह..
सुनो
हे कलियुगी कन्दर्प !
इतनी संकीर्णता का बोझ उठाकर
कैसे जी पाते हो ?
सोच
इतनी कसाद तुम्हारी
यह कैसे पात्र हो तुम ?
अंदर से कुछ
बाहर से कुछ और
क्यों हो तुम ?
— अपर्णा विश्वनाथ