अंतर मन से
“सुनो बाबूजी आये हैं, समझ में नहीं आता कि वेज़ किचन अलग से कहाँ बनाऊँ ? हमारे रसोईघर में तो रोज ऑमलेट बनता है, चिकन लॉली पॉप के बिना आप शाम की चाय नहीं पीते हो और आपके बाबूजी बिना भगवान जी को भोग लगाये स्वयं भोजन ग्रहण नहीं करते हैं, क्या करूँ कुछ तो समाधान ढूँढ़ो ।”
“हूँऊऊऊँ….सचमुच समस्या तो बड़ी है, पर इसका समाधान क्या होगा ? यह हमारी समझ से बाहर है । चलो चल कर बाबूजी से ही सच-सच बता कर समाधान पूछते हैं ।”
पति-पत्नी दोनों बाबूजी के पास जाकर अपनी समस्या बताई ।
उन दोनों की बातें सुनकर बाबूजी हँसे बिना नहीं रह सके ।
“हाहाहा…नॉनवेज यानि माँसाहार और वेज यानि शाकाहार तुम्हारी भाषा ही तुम्हें भ्रमित कर रही है । सामिष एवं निरामिष भोजन के लिए मन को पवित्र बना लो रसोईघर अपने आप निरामिष हो जायेगा ।”
“अरे वाह ! थैंक्यू….नो नो.. दिल से धन्यवाद बाबूजी आपने हमारी ,समस्या का चुटकी में हल समझा दिया ।
अब जब तक आप हैं इस घर में शाकाहारी भोजन ही पकेगा, हमारे रसोईघर में ।”
“बचपन से मैं सात्विक आहार लेता आया हूँ,जो मुझे आसानी से मुझे पच जाता है । बस इतना ही फर्क है ।”
“तो…क्या ?”
“बहु प्यार से जो भी पकाओगी , वही भगवान को मैं भोग भी लगाऊँगा और खाऊँगा भी ।
बस भोजन सात्विक एवं शाकाहारी होना चाहिए ।
यही तो है पीढियों का अंतर,हमें भी तो थोड़ा खुद को बदलना चाहिए ।”
“दिल से आभार बाबूजी; आज अगर वेज-नॉनवेज की वज़ह से आप अलग रसोईघर का सुझाव देते तो एक छत के नीचे पिता पुत्र बंट जाते ।”
“नहीं बेटे अंतर्मन से चाहत रहती है कि पिता पुत्र सदैव एक ही छत के नीचे रहें, अंतर मन से होता है ।”
— आरती रॉय