ग़ज़ल
मजबूरियों के साथ हूँ , मैं बेबसों में हूंँ,
जीने की आरज़ू है मगर उलझनों में हूंँ।
लब पर भी मेरा नाम है दिल में भी हूँ सनम,
शामिल कुछ इस तरह मैं तेरी आदतों में हूँ।
ये इश्क़ हुआ जबसे बुरा दिल का हाल है,
ऐसी उड़ी है नींद के बस रतजगों में हूँ।
लेकर सहारा झूठ का आगे नहीं बढ़ा,
इतना तो है सूकून सही रास्तों में हूं।
जबसे शुरू हुआ है ग़ज़ल का मेरी सफ़र,
तबसे ही मुसलसल सफ़र की मुश्किलों में हूँ।
‘जय’ फूल में मिले के, चमन में या बाग़ में,
खु़श्बू से मेरा रब्त है, मैं खु़श्बुओं में हूंँ।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’