ग़ज़ल
जिंदगी लाजवाब है न सवालों में उलझ
चलती फिरती किताब है न सवालों में उलझ
देखने दे हसीं दिलकश ये नजारे अब तो
पूरा करले जो ख़्वाब है न सवालों में उलझ
कभी घटता है बढ़ता है कभी आता न नज़र
फिर भी वो माहताब है न सवालों में उलझ
खोल दे दिल के झरोखों को हवा आने दे
उडने दे ये हिजाब है न सवालों में उलझ
अब तो छूने दे ख्वाहिशों के आसमानों को
खिलने को आफ़ताब है न सवालों में उलझ
— पुष्पा अवस्थी “स्वाती”