ग़ज़ल
एक घर में देखो कई मकान दिखते हैं
बिखरे हुए से रिश्तों के निशान दिखते हैं
कहने को हर क़दम पर इंसान हैं, मगर
इंसान में भी पर, कहाँ इंसान दिखते हैं?
जिनपे दिल-ओ-जान तक लुटा बैठे हम
वो काफिर हमीं से बद-गुमान दिखते हैं
हर रंग जो न बिक सके वो कैफ़ियत कहाँ
आज-कल बड़े ही सस्ते ईमान दिखते हैं
दौलत-शोहरत ही होना काफ़ी नहीं साहेब
ग़ौर कीजिये, लहज़े में ख़ानदान दिखते हैं
— प्रियंका अग्निहोत्री “गीत”