असली साहित्यकार
कटिहार जिला (बिहार) में ‘समेली’ कोई विकसित प्रखंड नहीं है, किंतु बौद्धिकता के मामले में अव्वल है, परंतु ‘समेली’ (मोहल्ला- चकला मोलानगर) शब्द ‘मानस-स्क्रीन’ पर आते ही एकमात्र नाम बड़ी ईमानदारी से उभरता है, वह है- “अनूपलाल मंडल” (जन्म- माँ दुर्गा की छठी पूजा के दिन, 1896; मृत्यु- 22 सितंबर 1982)। ‘परिषद पत्रिका’ (वर्ष-35, अंक- 1-4) ने अनूपजी के जीवन-कालानुक्रम को प्रकाशित की है, इस शोध-पत्रिका के अनुसार– आरम्भिक शिक्षा चकला-मोलानागर में ही । मात्र 10 वर्ष की अवस्था में प्रथम शादी, पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरी शादी 16 वर्ष की आयु में सुधा से । तीसरी शादी 27 वर्ष की उम्र में मूर्ति देवी से । सन 1911 में गाँव के उसी विद्यालय में प्रधानाध्यापक नियुक्त, जहाँ उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण किये थे । बाद में शिक्षक-प्रशिक्षण 1914 में सब्दलपुर (पूर्णिया) से प्राप्त किये । प्राथमिक और मध्य विद्यालयों से होते हुए 1922 में बेली हाई इंग्लिश स्कूल (अब- अनुग्रह नारायण सिंह उच्च विद्यालय), बाढ़ में, 1924 में टी0 के0 घोष अकादमी, पटना में, 1928 में महानंद उच्च विद्यालय में हिंदी शिक्षक नियुक्त, तो 1929 में बीकानेर के इवनिंग कॉलेज में 100 रुपये मासिक वेतन पर हिंदी व्याख्याता नियुक्त, इसी घुमक्कड़ी जिंदगी में इसी साल चांद प्रेस, इलाहाबाद से पहला उपन्यास ‘निर्वासिता’ छपवाया, वैसे अन्य विधा में से पहली पुस्तक ‘रहिमन सुधा’ थी, जो 1928 में छपी थी । पुस्तक विक्रेता के रूप में गुलाबबाग, चंपानगर, अलमोड़ा, नैनीताल, लखनऊ, आगरा, मथुरा, काशी, रानीखेत, सीतापुर, मंसूरी, भागलपुर, कटिहार इत्यादि स्थानों में घूमते रहे । इस यायावरी-मोह को त्यागकर 1930 में घर-वापसी और गाँव समेली में ‘सेवा-आश्रम’ की स्थापना किये तथा जीविकोपार्जन के लिए लक्ष्मीपुर ड्योढ़ी में 50 रुपये मासिक पर असिस्टेंट मैनेजर की नौकरी की, परंतु इसे छोड़ इसी साल गुरुबाज़ार, बरारी (जिला- कटिहार) में ‘युगांतर साहित्य मंदिर’ नामक प्रकाशन संस्थान खोले । वर्ष 1930 में ही स्वप्रकाशन संस्थान से उपन्यास ‘समाज की वेदी पर’ प्रकाशित हुआ, जो क्रोनोलॉजिकल क्रम में दूसरा उपन्यास है । फिर 1931 में ‘साकी’ और ‘गरीबी के दिन’ (अंग्रेजी उपन्यास ‘हंगर’ का अनुवाद), 1933 में ‘ज्योतिर्मयी’, 1934 में ‘रूप-रेखा’, 1935 में ‘सविता’ प्रकाशित हुई । इन उपन्यासों के पुनर्प्रकाशन भी हुए, तो ‘गरीबी के दिन’ उनके द्वारा अंग्रेजी से हिंदी में अनूदित उपन्यास है । ध्यातव्य है, वे हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी, बांग्ला, उर्दू और नेपाली भाषा में भी साधिकार लिखते थे, उर्दू के ‘आजकल’ में भी छपे । उपन्यासकार के तौर पर क्षेत्र, प्रदेश और नेपाल में चर्चित होने के कारण 1935 में जापानी कवि योने नोगूची के कोलकाता आगमन पर उनके अभिनंदन हेतु प्रतिनिधि-मंडल में उन्हें भी शामिल किया किया गया । तब डॉ0 माहेश्वरी सिंह ‘महेश’ कलकत्ता (कोलकाता) में पढ़ते थे । नेपाल (विराटनगर) में 25 एकड़ भूमि उन्हें रजिस्ट्री से प्राप्त हुई। वर्ष 1936 में हिंदी पुस्तक एजेंसी, कोलकाता ने ‘काव्यालंकार’ नाम से शोध-पुस्तक प्रकाशित की, तो 1937 में उनके दो उपन्यास प्रकाशित हुए, हिंदी प्रचारक पुस्तकालय, वाराणसी से ‘मीमांसा’ और श्री अजंता प्रेस, पटना से ‘वे अभागे’ नामक उपन्यास । ‘मीमांसा’ पर ‘बहुरानी’ नाम से निर्देशक किशोर साहू ने हिंदी फिल्म बनाये, परंतु इस निर्देशक के 500 रुपये प्रतिमाह पर कथा-लेखन के प्रस्ताव को ठुकराए। सन 1941 में ‘दस बीघा जमीन’ और ‘ज्वाला’ शीर्षक लिए उपन्यास प्रकाशित हुए । वर्ष 1942 से रीढ़, गर्दन, डकार इत्यादि रोगों से मृत्यु तक लड़ते रहे । स्वास्थ्य-लाभ के क्रम में ‘महर्षि रमण आश्रम’ और ‘श्री अरविंद आश्रम’ (पांडिचेरी) भी रहे तथा इन द्वय के जीवनी-लेखक के रूप में ख्याति भी अर्जित किये । अंग्रेजी और बांग्ला से अनूदित उपन्यासों को जोड़कर उनके द्वारा कुल 24 उपन्यास लिखे गए । अन्य उपन्यासों में ‘आवारों कई दुनिया’, ‘दर्द की तस्वीरें’ (दोनों 1945), ‘बुझने न पायें’ (1946), ‘रक्त और रंग’, ‘अभियान का पथ’ (दोनों 1955), ‘अन्नपूर्णा’, ‘केंद्र और परिधि’ (दोनों 1957), ‘तूफान और तिनके’ (यह नाम डॉ0 श्रीरंजन सूरिदेव ने दिया था, 1960), ‘शेष पांडुलिपि’ (1961, बांग्ला लेखक वसुमित्र वसु के उपन्यास का हिंदी अनुवाद), ‘उत्तर पुरुष’ (1970) इत्यादि शामिल हैं । ‘उत्तर पुरुष’ की वृहद समीक्षा डॉ0 चंद्रकांत बांदीवाडेकर ने किया था । अनूपजी के जीवनकाल में प्रकाशित अंतिम उपन्यास ‘नया सुरुज, नया चान’ (अंगिका भाषा में), जो 1979 में प्रकाशित हुई थी, पं0 नरेश पांडेय ‘चकोर’ के अनुसार, इस उपन्यास का विमोचन 11 नवंबर 1979 को शिक्षक संघ भवन, पटना में पूर्व मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री की अध्यक्षीय समारोह में हुई थी, तो ‘शुभा’ नामक उपन्यास संभवतः अद्यतन अप्रकाशित है, साहित्यकार रणविजय सिंह ‘सत्यकेतु’ के अनुसार, 82 पृष्ठों के फुलस्केप कागज पर हस्तांकित ‘शुभा’ की पांडुलिपि प्रख्यात समीक्षक व उनके शिष्य डॉ0 मधुकर गंगाधर के बुकशेफ़ में सुरक्षित है । वहीं 1973 में लिखकर तैयार उनकी आत्मकथा ‘और कितनी दूर है मंजिल’ 42 साल बाद (मृत्यु के 36 साल बाद ) भी अप्रकाशित है । डॉ0 श्रीरंजन सूरिदेव को उन्होंने एक पत्र (6 अगस्त 1982) लिखा था- “प्रिय श्रीरंजन, शुभाशीष! तीन महीने से रोगग्रस्त हो पड़ा हूँ । चिकित्सा चल रही है, पर कोई लाभ नहीं दिख पड़ता । शरीर से भी काफी क्षीण हो गया हूँ अब पटना जाने का कभी साहस नहीं कर सकता! यही कारण है कि श्री जयनाथ मिश्र ने मुख्यमंत्री डॉ0 जगन्नाथ मिश्र से मिलने के लिए जिस तिथि को बुलाया था, मेरा जाना संभव नहीं हो सका । जीवन में एक ही साध थी, वह थी– आत्मकथा का प्रकाशन । क्या करूँ– भगवान की इच्छा…. !” उन्होंने बच्चों के लिए भी बाल-कहानियां, एकांकी और किताबें लिखी, यथा- उपनिषदों की कथाएँ, मुसोलिनी का बचपन आदि । उनके द्वारा रचित सभी विधा की रचनाओं का विपुल भंडार हैं, जो कि बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना के संज्ञानार्थ यह संख्या 3 दर्जन से अधिक हैं ।
असली साहित्यकार के रूप में उनकी पहचान 9 अक्टूबर 1950 में ‘बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना’ में प्रथम ‘प्रकाशनाधिकारी’ पद पर नियुक्ति के बाद ही अभिलेखित हुई । परिषद के प्रथम निदेशक आचार्य शिवपूजन सहाय थेइस पहचान के प्रसंगश: 1951 में महादेवी वर्मा और डॉ0 हज़ारी प्रसाद द्विवेदी से उनकी मुलाकात हुई, जैसा कि अनूपजी खुद भी लिखते हैं- “बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की स्थापना जिन उद्देश्यों की पूर्त्ति के लिए की गई थी, उनमें मुख्य था– राष्ट्रभाषा हिन्दी के उन्नयन और समृद्धि के लिए विशेषज्ञ विद्वानों द्वारा ग्रंथों का प्रणयन करवाकर उन्हें प्रकाशित करना । …. विशिष्ट विद्वानों से संपर्क स्थापित किया गया, पत्राचार होते ही ही रहे और अवसर आने पर उनमें से श्रीमती महादेवी वर्मा, डॉ0 हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ0 वासुदेव शरण अग्रवाल, डॉ0 मोतीचंद, आचार्य नरेंद्र देव, डॉ0 यदुवंशी, डॉ0 सत्यप्रकाश, डॉ0 गोरख प्रसाद, डॉ0 धीरेंद्र अस्थाना, पं0 राहुल सांकृत्यायन, डॉ0 विनय मोहन शर्मा, डॉ0 हेमचंद्र जोशी, डॉ0 अनंत सदाशिव अल्तेकर, पं0 गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी इत्यादि प्रख्यात विद्वानों का परिषद में पदार्पण हुआ । …. उस समय बिहार के शिक्षा मंत्री (आचार्य बद्रीनाथ वर्मा) और शिक्षा सचिव श्री जगदीशचंद्र माथुर दोनों यशस्वी लेखक थे । विचार-विमर्श के लिए निरंतर भेंट होते– कभी अकेले, तो कभी शिवभाई (आचार्य शिवपूजन सहाय) के साथ । उस समय परिषद का कार्य ‘सिन्हा लाइब्रेरी’ से होता था ।” वे आचार्य शिवपूजन सहाय पर भी लिखते हैं- “शिवभाई और मेरे स्वभावों में आकाश-पाताल का अंतर था । वे शांत थे और मैं उग्र था ।… उन्होंने ‘विनय पत्रिका’ की एक प्रति मुझे भेंट की थी और उन्होंने आग्रहपूर्वक कहा था कि आप नित्य नियम बांध कर विनय पत्रिका और रामचरित मानस का पाठ करते चलिए अनूप भाई । देखिएगा, आपका संकट दूर होगा और आप प्रसन्न रहेंगे । मिलने पर अवश्य पूछते- ‘क्यों अनूप भाई, ‘मानस’ और ‘पत्रिका’ का पाठ निरंतर चल रहा है न ! उस पुण्यात्मा ऋषिकल्प शिवजी भाई को मेरा शतशः प्रणाम ।” बि0 रा0 परिषद ने 1957 में उनके उपन्यास ‘रक्त और रंग’ के प्रसंगश: ‘बिहारी ग्रंथ लेखक पुरस्कार’ और 1981 में ‘वयोवृद्ध साहित्य सम्मान’ प्रदान किया । शनै: – शनै: हो रहे कमजोर शरीर और बढ़ती बीमारी के कारण उन्होंने ‘प्रकाशनाधिकारी’ पद से 1963 में त्यागपत्र दे दिए और सामाजिक सरोकारों से जुड़ गए, इसी क्रम में अपने गांव (अब प्रखंड) समेली में ‘प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र’ की स्थापना में अनूपजी की अविस्मरणीय भूमिका रही, जिनमें ग्रामीण डॉ0 विहोश्वर पोद्दार जी ने चिकित्सीय सहयोग दिए थे । मृत्यु भी गाँव में हुई थी । तब ज्येष्ठ पुत्र सतीश सहित सुवोध और प्रबोध भी वहीं थे । बेटी, पोते-पोती, नाती-नतिनी के भरे-पूरे परिवार छोड़कर कि—
“बड़ी रे जतन सँ सूगा एक हो पोसलां,
सेहो सूगा उड़ी गेल आकाश…………।”