ग़ज़ल
बेशर्म थी वो तुम तो शर्म कर ही सकते थे
दामन में उसके इज्जतें भर भी सकते थे।
माना के बेबसी में वो बदन बेचती रही
समझौता हालातों से तुम कर भी सकते थे।
लाज शर्म की उसने तुम्हें पतवार सौंप दी
रहमो करम की उसपे नजर कर भी सकते थे।
रिश्ता बनाके उसका तुम हाथ थाम लेते
कोठा कहते हो उसे घर कर भी सकते थे।
उसका गुनाह न अपना गिरेबां भी झांकिए
इंसान बनके तुम खुदा से डर भी सकते थे।
तुम मसीहा थे जानिब था हर फैसला तेरा
आंचल उढ़ाके तुम बदन को ढक भी सकते थे।
— पावनी जानिब