लालच जीत रहा
तृष्णा के आधीन हुआ मन लालच जीत रहा।
व्यर्थ दौड़ में वृथा ज़िन्दगी का घट रीत रहा।।
मन हरि से मिलने अपनी आँखें मीचे भागे।
जैसे मृग अपनी कस्तूरी के पीछे भागे।।
अपने आप स्वयं को छलते जीवन बीत रहा…
व्यर्थ दौड़ में वृथा ज़िन्दगी का घट रीत रहा…
करना था जो हमको काम किया ही कब हमने।
मन के सन्नाटे का शोर सुना ही कब हमने।।
मन अपना होकर भी कब मन का मनमीत रहा..
व्यर्थ दौड़ में वृथा ज़िन्दगी का घट रीत रहा…
ख़ुशबू और हवा को कैदी करने की ज़िद में।
विधिना से उलझा मनमर्ज़ी करने की ज़िद में।।
स्वयंसिद्ध मन नियम विधानों के विपरीत रहा…
व्यर्थ दौड़ में वृथा ज़िन्दगी का घट रीत रहा…
सच से परे स्वप्न आभासी चारो ओर पले।
चकाचौंध में मिथ्या की अँधियारे घोर पले।।
साँसों की सरगम का साथी ग़म का गीत रहा…
व्यर्थ दौड़ में वृथा ज़िन्दगी का घट रीत रहा…
— सतीश बंसल