स्थायी या क्षणभंगुर
आने वालीं पीढ़ियाँ
हमेशा कुछ न कुछ
नया करती रहेंगी,
इसलिए यह सोचना
कि हमारे फलां महापुरुष ने
तो यह कहा था करने को
या वो कहा था करने को….
ये सारी बातें आपको
लकीर का फ़क़ीर बनाता है ।
अपने महापुरुषों से
सीख लेते हुए
समय के साथ
खुद को
परिवर्तित करते हुए
निरंतर
नए रास्तों की
तलाश कीजिए ।
यही सही तरीका होता है।
पूजा तो पूजा होती है,
फिर गरीब भारत में
‘पंडाल’ पर
करोड़ों खर्च क्यों?
वह भी
कुछ दिनों के बाद
फिर उजाड़!
जबकि
एक साल के
उन चंदों से
वहाँ स्थायी तौर पर
मन्दिर और छत हो जाते !
करोड़ों रुपये के
क्षणभंगुर ‘पंडाल’ को लेकर
कोई इसे स्पष्ट करेंगे!