लघुकथा – दूहाजू वर
“क्या कर रही हो डार्लिंग ? मुझे आये हुए आधे घंटे से ऊपर हो गये हैं । एक कप चाय तो दे ही सकती हो ऑफिस से आने के बाद ।”
“बस दो मिनट और इंतजार करें, पीहू आती ही होगी स्कूल से, वो आ जाये फिर चाय बनाती हूँ ।”
“तुम कुछ ज्यादा ही पीहू के प्रति केयरिंग नहीं हो रही हो ? मैं भी तो ऑफिस से आया हूँ ।”
विद्या लैपटॉप बंदकर चुपचाप रसोईघर की ओर चल दी । चाय का पानी चढ़ाकर अतीत में खोने लगी ।
माँ ने उसे भले ही खूब पढ़ाया, पर बाबूजी! पढ़ाने के एवज में भरपूर मुनाफा भी वसूले । पीएच डी करते-करते उसकी उम्र लगभग सत्ताइस साल हो गई थी । नौकरी लगते ही उसके वेतन से बाबूजी के सपने सच होने लगे ।
मंहगी गाड़ी, दोनों भाइयों के लिए दोमंजिला मकान माँ के गहने । ऊफ्फ… क्या क्या दुख नहीं सही थी मैं ! जीवन के दस बसंत हमने जीवन-साथी की आस में गंवा दिये ।
क्या पीहू को भी….नहीं… नहीं भले ही मैं उसकी सौतेली माँ हूँ, पर माँ तो हूँ । जल्दी से चाय छानकर बाहर आ गई ।
ऐसा लगा मानों इतिहास पुनः दोहरा रहा हो !
“पीहू; ये देखो,इसमें से कौन सा मॉडल सही होगा ? सोच रहा हूँ इस बार मात्र अट्ठारह इन्सटॉल मेंट पर कार ले ही लूँ ।”
पीहू कुछ बोलती उससे पहले विद्या बोल पड़ी-
“अब जो भी किजिये अपनी चादर देखकर ही पैर पसारिये, बिटिया पराई अमानत है । कल पीहू को देखने लड़केवाले आ रहे हैं ।”
“क्या !! इतनी जल्दी ? अभी तो होम लोन भी नहीं सधा है । पीहू के भरोसे ही तो मैंनें बैंक से कर्ज लिया था ।”
“बस किजिये मैं नहीं चाहती दूसरी विद्या दूहाजू….कहते हुए अचानक चुप हो गई ।”
— आरती रॉय
आधुनिक लालची प्रवृत्ति की सटीक मनोवेदना!
प्राचीन काल से ही बेटियों को मायके में वारिस न मानकर पैतृक सम्पत्ति में हक से वंचित किया जाता रहा, शादी के समय कुछ उपहार स्वरूप भेंट दी जाती थीं, उन्हें दहेज के नाम से गरियाया जाने लगा। वर्तमान समय में बेटियों की कमाई पर आश्रित होने के कारण उनकी शादी में ही विलम्ब करने की प्रवृत्ति भी उन के साथ शोषण का नया प्रारूप जन्म ले रहा है।