सामाजिक

शुष्कहोती संवेदनाएं

एक दूसरे के प्रति संवेदनाएं बड़े शहरों में तो पहले से ही शुष्क होती जा रही थीं, रही-सही कसर कोरोना काल ने पूरी कर दी। अगर ऐसा ही चलता रहा तो पता नहीं हमारे बच्चे जो राष्ट्र निर्माता कहे जाते हैं, उनका भविष्य कैसा होगा? एक बात मेरे जहन में घर कर गई जो आप सभी के साथ बांटना चाहती हूं।

बात ऐसी है कि दिल्ली जैसी बड़ी जगह पर आमने-सामने वाले भी एक-दूसरे को जानते तक नहीं हैं। एक मेरी परिचित ने अपना घर बदला। नामी सोसाइटी में बड़ा घर लिया। वह सोसाइटी बहुत बड़ी थी और उसमें सारे कार्य भी सही तरीके से होते थे। वह बहुत हंसमुख व दानवीर स्वभाव की हैं। इसलिए जल्दी सबसे घुल-मिल जाया करती हैं, परंतु पड़ोस में उनकी दाल न गली।
जब वे लोग अपना सामान लेकर आए और अपने घर को सजाने में लगे तब उनके पड़ोसी उनके पास आए यह देखने कि कौन आया है? साथ में पूछ लिया कि किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो बताइएगा। मेरे परिचित ने भी कह दिया कि क्यों नहीं आपको तो जरूर बताएंगे। आखिर सबसे पहले पड़ोसी ही तो काम आते हैं।
“पानी वगैरह चाहिए तो बताइए, खाना बनाऊं आपके लिए, हम तो रात में कुछ खाते नहीं हैं। बहुत व्यस्त दिनचर्या है हमारी।” कहकर वहां से खिसक ग‌ए।
मेरी परिचित समझ गई कि हमारा पड़ोस किस प्रकार का है। एक साल हो गया उनको उस मकान में बस राम-राम के अलावा कुछ नहीं है। आजकल तो कोरोना के चलते राम-राम भी बंद है। उन्हें नहीं पता उनके बच्चे क्या करते हैं और कहां पर हैं? ऐसे माहौल में बच्चे क्या सीखेंगे? सोचकर भी घबराहट होती है। बड़े शहरों की बड़ी-बड़ी बातें, हमारी समझ से तो काफी परे हैं?

— नूतन गर्ग (दिल्ली)

*नूतन गर्ग

दिल्ली निवासी एक मध्यम वर्गीय परिवार से। शिक्षा एम ०ए ,बी०एड०: प्रथम श्रेणी में, लेखन का शौक