ग़ज़ल
मैं न जाऊँगा ये कहते हो मगर जाओगे..।।
माना कुछ देर अभी और ठहर जाओगे..।।
मैं तो सागर हूँ न तोडूँगा मैं सीमा अपनी…
तुम हो दरिया ये बताओ के किधर जाओगे..।।
जिसको मालूम नहीं खुद भी कहाँ जाना है….
मुझसे वो पूँछ रहा है कि किधर जाओगे..।।
उम्र भर काफिले वालों का मिलेगा न पता…
जो सफर मे कहीँ इक लम्हा ठहर जाओगे..।।
तुम को शुहरत की जरूरत ही नहीं है ए नितान्त…
तुम तो खुश्बू हो जमाने मे बिखर जाओगे..।।
— समीर द्विवेदी नितान्त