अँधेरी निशा
हे रजनी तेरी रश्मियाँ
बादल में छुप जाती है
तीसरे पहर भी नभ में तम है ,
नही ज्योति फैलाती है
उदास ,अलहदा ये मन मेरा
बन बैठा कोरा कागज
शांत ,शिथिल अब रोम- रोम है
ऐ रजनी तू भी डराती है ।
जब मन विरहन बन बैठा है
और अश्रु कपोल भिगोते है
अन्तस् चोटिल ,घाहिल जब है
अखियन में दर्द संजोते है
ऐ रजनी सुन बात मेरी
तुझमे क्यों उदासी है
क्या तेरा भी दिल टूटा है
जो तम में तू भी नहाती है
ना तू बचपन की सखी
ना ही प्रिय मेरी साथी है
मेरी उदासी , अकेलापन
तू कैसे समझ पाती है
वो अंकित है हर पन्ने पर
निशा बता क्या हाल कहूँ
रुधिर कणों में मेरे बसा है
क्या रजनी फिलहाल कहूँ
विलग कभी ना हो पाऊँगी
उन सुहानी रातों से
नील गगन में तारे गिना
करती थी जज्बातों से
यादों का धुँधला दर्पण जब
कोई प्रतिबिम्ब दिखाता है
इस मनस पटल पर तेरा
वही चित्र उभर आता है
अरे बावरी निशा तू सुन ले
अभी भोर हो जायेगा
मत हताश ,उदास फिर तू
पूनम मिलने आयेगा
मेरा क्या विरह की मारी
बावरी बन फिरती हूँ
हाड़ , मास भी नही शरीर में
घुट – घुटकर दर्द अब सहती हूँ ।
— ऋतु ऊषा राय