कविता
जीत मे भी, हार मे भी
अविचल चलता रहूँगा,
विश्वास का संबल लिये
मंजिलें गढता रहूँगा|
था नही कुछ भी हमारा
जो यहाँ पर खो दिया हो,
पा सकूँ सारा जहां
इस आस मे बढता रहूँगा|
हैं कुछ बाधायें यहाँ
और पग में कंकर चुभ रहे,
हौसलों की डोर थामे
नित सृजन करता रहूंगा|
कौन जीता कौन हारा
किसका लक्ष्य क्या बना?
क्यों करूँ चिन्ता विगत की,
आगत पर ही ध्यान धरूँगा|
कर्म मै खुद ही करूँ और
फिर प्रभु से हो कामना,
मार्ग मेरा प्रशस्त करें
मैं पर्वतो तक बढ चलूँगा|
हूँ बहुत कृतज्ञ जग मे
दोस्तों के साथ का,
हर मुकाम उनको मिले
आराधना करता रहूंगा|
था नही जिस योग्य
उससे बढकर मुझको मिला,
है कृपा तुम्हारी प्रभु
नित गुणगान करता रहूंगा|
अ कीर्ति वर्द्धन