व्यंग्य – घर का भेदी लंका ढावे
‘घर में लगती है आग घर के ही चिराग से।’यह कहावत कुछ यों ही नहीं बन गई।इसी प्रकार ‘घर का भेदी लंका ढावे’ भी बहुत प्राचीन त्रेतायुगीन सोने की लंका में घटी घटना पर आधारित है। आज के युग में ये दोनों कहावतें सटीक सिद्ध होती हुई ये कह रही हैं कि वे आज के लिए ही तो बनी हैं।
देश के अंदरूनी हालात से कौन वाकिफ़ नहीं है। देश के ही लोग बाहरी दुश्मनों का सहारा लेकर उन्हें प्रश्रय दे रहे हैं औऱ निरंतर देश को खोखला कर रहे हैं। वह तो भगवान श्रीराम जी ने वानरों औऱ भालुओं आदि का सहयोग लेकर रावण की सोने की लंका पर विजय प्राप्त की। यदि मनुष्यों का सहारा लिया गया होता तो सम्भवतः राम को विजय श्री हासिल करने में लोहे के चने चबाने पड़ जाते। मनुष्य तो सोने की लंका देखकर ही बौरा उठते,औऱ लड़ाई का मैदान छोड़कर सोना बटोरने में लग जाते।फिर घर का भेदी भी फिसड्डी साबित होता। वानर, भालुओं को भला सोने से क्या काम! क्या लालच !!इसलिए निर्मोह भाव से युद्धरत रहे औऱ पूर्ण समर्पण से राम का सहयोग किया।
देश के दुश्मन देश में ही छिपे हुए घात कर रहे हैं।कभी किसान आंदोलन भड़काकर, कभी छात्रों को बरगला कर , कभी हिन्दू -मुस्लिम भावना की आग सुलगाकर, कभी राजनीतिक छल-छद्म का जाल तानकर देश को कमजोर करने में लगे हुए हैं। देश के ये विषैले नाग आस्तीन के साँपों से कम नहीं हैं। क्या इनसे देशभक्ति की कोई भी आशा की जा सकती है? इस देश के तथाकथित नेता अपने को दूध से धुला हुआ नहीं समझें। वे दूध के रंग के कपड़े ,सूट -बूट पहन कर अपने को हंसों की कतार में बैठने की भूल न करें। नेता – नेतियों की भी अनेक किस्में हैं।सियासी,किसानी,विद्यार्थी, कर्मचारी,पटवारी, वकील, अधिकारी -हर क्षेत्र में नेता ही नेता हैं। नेता का नाता देशभक्ति से हो ,यह कदापि आवश्यक नहीं है। हाँ, इतना अवश्य है कि सभी प्रजाति के नेता अपने को ही सबसे बड़ा देशभक्त , जनहितकारी, परमार्थी, परोपकारी और घण्टा बजाने में अग्रणी अवश्य प्रदर्शित करते हैं। इनमें भी ‘घर के भेदी’ छिपे हुए हैं । सेना ,जो देश सेवा का सबसे बड़ा क्षेत्र माना जाता है , वह भी ऐसे दगाबाजों से खाली नहीं है।
क्या पुलिस !क्या प्रशासन!! क्या आँगनबाड़ी क्या राशन! जिसके जितने पैने दाँत, उतनी लंबी उसके पेट में आँत। बस वही बेचारा ईमानदार है, जिसे अवसर की अम्मा ने दूध नहीं पिलाया। वह तो बस मन मसोसे बैठा तिलमिलाया।! उसने ही सोने की लंका पर गज़ब नहीं ढाया। आज वही तो दूध का धुला है।उसने ही फतह किया ईमानदारी का किला है। बेचारे को मौका ही नहीं मिला है। वह सबसे बड़ा देशनुरागी है। बड़भागी है। क्योंकि उसने मर्यादा की लक्षमण रेखा नहीं लांघी है । इसलिए आज वही विवेकानंद है , वही गांधी है।
घर के भेदी का नाम कोई अपने बच्चे का भले न रखे, पर वह तो इस सिद्धांत का मानने वाला है: ‘बदनाम होंगे तो क्या नाम न होगा? विख्यात न सही कुख्यात तो होगा।’ इस देश में एक विभीषण तो नहीं ,जो सूची जारी कर दी जाए! घर -घर , गली -गली , गाँव -गाँव, नगर -नगर , दफ्तर -दफ्तर , प्रदेश-प्रदेश , सारे देश अनेक वेशों में छद्म सेना है ,जिसे देश और समाज से कुछ नहीं लेना -देना है। बस दीमक की तरह धीरे -धीरे देश को खोखला करते रहना है।इस काम को जितने गोपनीय ढंग से कर लें ,वही इनकी वफ़ादारी, ईमानदारी,कारगुजारी और हंस की सवारी है। खुलती है जब पोल , तब दुनिया को पता लगता है इनका ‘पावन’ रोल! फिर मारो इन्हें गोली या कड़े हाथ का धौल,वही है इनका मोल , केले के पातों जैसे उतरने लगते हैं खोल।
इनके शातिर दिमाग की उड़ान , रहस्यों से भरी चाहें पहुँचा दे मसान, ये नहीं छोड़ते अपने पैरों के निशान। भले ही ले लो इनकी जान। यही तो है घर के भेदियों की असली पहचान।कहते हैं ये मान न मान मैं तेरा मेहमान। भीतर से ज़िंदाबाद पाकिस्तान! बाहर से सब कुछ मेरा हिंदुस्तान।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’