अंधविश्वास के मामले में यह दुनिया आगे जा रही है या पीछे ?
हम आपको लगभग 5सौ साल पहले की दुनिया में लिए चल रहे हैं,जब उस समय की तत्कालीन दुनिया के अधिकांशतः लोग ईसापूर्व 384 में जन्में अरस्तू के इस सिद्धांत को एकदम सत्य और अटल मानते थे कि ‘पथ्वी इस समस्त ब्रह्मांड के केन्द्र में है। ‘उक्त यह बात उस समय की तत्कालीन जनता के मन-मस्तिष्क में गहरे बिठाने का काम यूरोप के सत्ता के सर्वोच्च केन्द्र उस समय के चर्चों ने किया था। यह बात उस समय बिल्कुल अकाट्य मान ली गई थी। उस समय समाज में सत्ता और बल के सर्वोच्च पद पर ईसाई चर्च और उनके सर्वेसर्वा पोप हुआ करते थे,उसके बाद ही उस देश के राजा का स्थान हुआ करता था !आश्चर्यजनक बात यह भी है कि अरस्तू द्वारा प्रतिपादित उक्त सिद्धांत यह दुनिया ईसा पूर्व 384 से लेकर 1530 तक लगभग 19 सौ साल तक बिल्कुल सत्य मानती रही,जब तक कि पोलैंड के महान गणितज्ञ व खगोलविद निकोलस कोपरनिकस की पुस्तक ‘डी रिवोलूसन्स ‘प्रकाशित नहीं हो गई ! जिसमें उन्होंने स्पष्ट बताया कि ‘सूर्य पृथ्वी का नहीं,अपितु पृथ्वी ही अपने अक्ष पर घूमती हुई साल भर में सूरज की एक परिक्रमा करती है,मतलब ब्रह्मांड उस समय सौरमंडल को लगभग ब्रह्मांड मान लिया जाता था की केन्द्र पृथ्वी नहीं बल्कि सूरज है ।
कोपरनिकस ने इसके अलावे भी बहुत सी बातें बताईं मसलन सूरज की गति का आभास हमें इसलिए होता है,क्योंकि हमारी पृथ्वी ही गतिशील है और घूम रही है। सबसे बड़ा आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि निकोलस कोपरनिकस ने ये सारे खगोलीय रहस्य केवल अपनी नंगी आँखों से देखकर और गणितीय फार्मलों की मदद से खोजकर दुनिया को बताए ! उनके मरने के बहुत बाद जब इटली के वैज्ञानिक और खगोलविद गैलीलियो ने टेलिस्कोप का अविष्कार किया तो निकोलस कोपरनिकस की बताई ये सारी बातें बिल्कुल सही सिद्ध हुईं।सबसे दुःख और अफसोस की बात यह हुई कि कोपरनिकस द्वारा यह बताए जाने और सिद्ध किए जाने के बाद भी अड़ियल और अंधविश्वासी ईसाईयों के धर्मगुरु पोप अभी भी यह मानने को तैयार नहीं थे कि ‘पृथ्वी ही सूरज की परिक्रमा कर रही है या ब्रह्मांड वास्तव मेें सौरमण्डल का केन्द्र पृथ्वी न होकर सूरज है ! ‘ इसका सबसे बड़ा और बहुत ही दुःखद घटना निकोलस कोपरनिकस के बाद जन्मे एक महान वैज्ञानिक जियोर्दानो ब्रूनों जीवनकाल 1548-17 फरवरी 1600 कोपरनिकस के सिद्धांत के समर्थन करने और अन्य बहुत से अपने मौलिक और सत्य विचारों के प्रतिपादित करने की वजह से उन्हें तत्कालीन ईसाई धर्माध्यक्षों के कोपभाजन का शिकार बनना पड़ा और अन्ततः उन वहशी और दरिंदे ईसाई धर्माध्यक्षों ने उनको रोम के एक चौराहे पर 27 फरवरी सन् 1600 के एक काले दिन को एक खंभे से बाँधकर,उन पर मिट्टी का तेल छिड़ककर,जिन्दा ही जलाकर मारने जैसा कुकृत्य कर दिए ! बाद के वर्षों में जियोर्दानो ब्रूनों की कही सभी बातें सत्य सिद्ध हुईं ! उस महान वैज्ञानिक को जिन्दा जलाने वाली इस अत्यंत दुःखद और बर्बर घटना को बीसवी शताब्दी के वैज्ञानिक समीक्षकों ने बहुत ही अफ़सोस जनक कुकृत्य करार देते हुए,जियोर्दानो ब्रूनों को ‘प्रथम स्वतंत्र चिंतक शहीद ‘ का दर्जा प्रदान किया और उन्हें ‘आधुनिक वैज्ञानिक विचारों का सबसे साहसी और बड़ा प्रवक्ता के खिताब से भी नवाजा गया है। ‘
इस महान वैज्ञानिक ने अपने 52 वर्ष के अल्प जीवनकाल में ही बहुत से अन्वेषणात्मक वैज्ञानिक व धर्म के बारे में बहुत ही मानवीय पक्ष रखे उदाहरणार्थ उन्होंने धर्म के बारे में अपना विचार रखते हुए निर्भीकतापूर्वक कहा कि ‘धर्म वह है जिसमें सभी धर्मों के अनुयायी आपस में एक-दूसरे के बारे में खुलकर बात कर सकें। ‘ खगोलीय विज्ञान में प्रकाश डालते हुए,उन्होंने 16 वीं सदी में ही बता दिया कि ‘हर तारे का वैसा ही अपना परिवार होता है,जैसा कि हमारा सौर परिवार होता है। सूर्य की तरह ही हर तारा अपने परिवार का केन्द्र होता है। ‘ या ‘इस ब्रह्मांड में अनगिनत ब्रह्मांड हैं। ब्रह्मांड अनन्त और अथाह हैं। ‘ या ‘धरती ही नहीं सूर्य भी अपने कक्ष पर घूमता है। ‘परन्तु जियोर्दानो ब्रूनों के जीवन काल में उनके ये सत्यपरक विचार और तथ्य उस समय के धर्मभीरु और अंधविश्वासी तत्कालीन लोगों और समाज को समझ में ही नहीं आया। तत्कालीन अंधविश्वासी समाज द्वारा उस महान वैज्ञानिक का प्रबल और तीव्र विरोध करके उन्हें जिन्दा ही जलाकर,उनकी निर्मम हत्या कर दी गई लेकिन उनके मरने के बाद उनके द्वारा कही गई हर बातें सही सिद्ध हुईं चाहे वे धर्म के बारे में हों या खगोल विज्ञान के बारे में हों। वे एक 16 वीं सदी के प्रसिद्ध इटेलियन दार्शनिक,खगोलशास्त्री, गणितज्ञ और कवि थे,वे उस समय अपने पूर्ववर्ती वैज्ञानिक निकोलस कोपरनिकस के सत्यपरक विचारों का पुरजोर और प्रबल समर्थन किए,जब पूरा यूरोप ही अंधविश्वास और पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर अंधकार में डूबा हुआ था। इतिहासकारों के अनुसार जियोर्दानो ब्रूनो बड़े ही निर्भीक और क्रांतिकारी विचार वाले बहादुर व्यक्ति थे। वे अंधविश्वासी और जाहिल चर्च के पादरियों से बिल्कुल नहीं डरते थे,इसलिए जीवन भर वे उन धर्म के ठेकेदारों के जुल्म सहते रहे,8 साल तक तो वे जेल में यातना सहते रहे,उन्हें हारता न देखकर चर्च के जालिम पादरियों ने अन्ततः उन्हें हैवानियत की हद करनेवाली सजा,रोम के एक चौराहे पर एक खम्भे से कसकर बांधकर मिट्टी का तेल छिड़ककर ‘जिन्दा ही जलाने ‘ का राक्षसी कृत्य अपने नाम कर लिए। वो बहादुर वैज्ञानिक, खगोलशास्त्री स्वंय को हंसते हुए जलना स्वीकार किया, लेकिन अपने सिद्धांतों से नहीं डिगा,न जलते समय उनके चेहरे पर कोई पश्चाताप की अनुभूति हुई,उन्हें पूर्ण विश्वास था कि एक न एक दिन ऐसा आएगा,जब उनकी बातें सत्य सिद्ध होंगी,अन्ततः बाद के दिनों में उनकी सभी बातें सत्य सिद्ध भी हुईं,लेकिन धर्म के अंधविश्वासी दरिंदों ने उनकी बलि तो ले ही लिए थे !
इस दुनिया में पाखण्डपूर्ण ,अंधविश्वासी ,क्रूर धर्म के ठेकेदारों द्वारा अपने विरोधियों, जो वास्तविक रूप में समाज सुधारक लोग थे,बहुत ही क्रूरतापूर्वक हत्या करने के बहुत से उदाहरण हैं,जिनमें पौराणिक काल के चार्वाक,आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानंद, मार्टिन लूथर किंग, महात्मा गाँधी,प्रोफेसर कलबुर्गी, कामरेड पनसारे, डॉक्टर नरेन्द्र दाभोलकर आदिआदि बहुत से नाम हैं,जिन्हें ये धर्म के क्रूर ठेकेदारों ने अपने रास्ते का कंटक समझते हुए,उन्हें बहुत ही बेरहमी और क्रूरता से निर्मम हत्या किए,वैसे सबको बेवकूफ बनाने के लिए ये पाखण्डी ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर करना । ‘ प्रवचन देते रहते हैं, परन्तु ये धर्म का लबादा ओढ़े भेड़िए सबसे ज्यादे अपने स्वार्थ के लिए ‘धर्म के नाम पर ‘ ही सबसे ज्यादे हत्या करते रहे हैं। यही वास्तविकता है। आज से ढाई हजार साल पहले इन पाखण्डियों से गौतम बुद्ध लड़े,उसके बाद बहुत से समाज सुधारक यथा कबीर, महात्मा फुले,स्वामी दयानंद सरस्वती, बाबा भीम राव अम्बेडकर आदि खूब लड़े,लेकिन गौतमबुद्ध के जमाने से आज तक हमें नहीं लग रहा है,कि इस दुनिया और इस समाज से धार्मिक कूपमंडूकता, अंधविश्वास और पाखण्ड जरा भी कम हुआ हो,हमें तो लग रहा है,यह पाखण्ड, अंधविश्वास और धार्मिक जाहिलता भारत जैसे देश में यह आधुनिकतम् दृश्य मिडिया के माध्यम से और भी पुष्पित, पल्लवित हो रहा है। आज भी यहाँ बहुत ही चिन्ताजनक स्थिति बनी हुई है।
— निर्मल कुमार शर्मा