दोहागीत “फीके हैं त्यौहार”
बात-बात पर हो रही, आपस में तकरार।
भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।।
(१)
बेकारी में भा रहा, सबको आज विदेश।
खुदगर्ज़ी में खो गये, ऋषियों के सन्देश।।
कर्णधार में है नहीं, बाकी बचा जमीर।
भारत माँ के जिगर में, घोंप रहा शमशीर।।
आज देश में सब जगह, फैला भ्रष्टाचार।
भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।।
(२)
आपाधापी की यहाँ, भड़क रही है आग।
पुत्रों के मन में नहीं, माता का अनुराग।।
बड़ी मछलियाँ खा रहीं, छोटी-छोटी मीन।
देशनियन्ता पर रहा, अब कुछ नहीं यकीन।।
छल-बल की पतवार से, कैसे होंगे पार,
भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।।
(३)
ओढ़ लबादा हंस का, घूम रहे हैं बाज।
लूट रहे हैं चमन को, माली ही खुद आज।।
खूनी पंजा देखकर, सहमे हुए कपोत।
सूरज अपने को कहें, ये छोटे खद्योत।।
मन को अब भाती नहीं, वीणा की झंकार।
भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।।
(४)
जब हो सबका साथ तो, आता तभी विकास।
महँगाई के दौर में, टूट रही है आस।।
कोरोना ने हर लिया, जीवन का सुख-चैन।
समय पुराना खोजते, लोगों के अब नैन।।
आशाएँ दम तोड़ती, फीके हैं त्यौहार।
भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।।
(५)
कुनबेदारी ने हरा, लोकतन्त्र का ‘रूप’।
आँगन में आती नहीं, सुखद गुनगुनी धूप।।
दल-दल के अब ताल में, पसरा गया है पंक।
अब वो ही राजा हुए, कल तक थे जो रंक।।
जन-जन का हो उन्नयन, मन में यही विचार।
भाई-भाई में नहीं, पहले जैसा प्यार।।
— डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’