ग़ज़ल
ज़ख़्म पीठ के बता रहे, ये सारे हैं
आप जहाँ से नहीं, खून से हारे हैं।
जो खंजर लेकर हाथों में घूम रहे
हटा मुखौटा तो सब अपने प्यारे हैं ।
जो समझा करते थे, वक़्त हमारा है
उन्हें देखकर लगा, वक़्त के मारे हैं।
धरा पे बिखरी धूल उठाकर देखा तो
समझ ये आया टूटे हुए सितारे हैं।
उनके गालों पर तो कतरा शबनम था
अपनी आँखों के आँसू तो खारे हैं।
पड़ी पेड़ की शाखाएँ थीं बता रही
इन्हें काटनेवाले भी तो हमारे हैं।
‘शरद’ फूँककर पग रखना इन राहों में
कदम-कदम पर बिछे हुए अंगारे हैं।
— शरद सुनेरी