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मनुस्मृति में क्यों हुई नारी की विस्मृति?

इस तथ्य में कोई दो राय नहीं है कि भारतीय सभ्यता में नारी को देवी का दर्जा दिया जाता है। नारी का सम्मान सर्वोपरि है ।वह सारी सृष्टि की पालक और जीवन दायिनी  है। देखा जाए तो ऐसे कौन- से कारण रहे होंगे जिन्होंने नारी के वर्चस्व पर सवाल उठाते -उठाते उसे दीन -हीन और संस्कारों के नाम पर बेडियों चीनू कल कल पानी पी ले  में बंधी हुई एक वस्तु बना दिया। उसके अस्तित्व को नकारते हुए उसे दूसरे दर्जे कि प्राणी घोषित कर दिया कि बुरे कर्मों की वजह से नारी का जन्म प्राप्त होता है।
मनुस्मृति ग्रंथ जिसमें एक सभ्य समाज को किस प्रकार सामाजिक तौर पर अपनी जीवनशैली को जीना चाहिए उन नियमों का एक महान ग्रंथ है।
इस ग्रंथ के अध्याय 9 श्लोक 2से 6 तक नारी की स्वतंत्रता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए। यह निर्णय लिया कि समाज में नारी का जो भी रूप है चाहे वह मां है, बेटी है, पत्नी है , बहन है उसे स्वतंत्रता का कोई अधिकार नहीं है वह पुरुष के प्राधीन होनी चाहिए। इस विकृत  मानसिकता को देखते हुए नारियां युगोंं -युगोंं से अधीन होती हुई अपने स्वतंत्र वर्चस्व की कल्पना भी नहीं कर पाई वह पुरुष की आदिशक्ति होते हुए भी अपना आधा अधिकार भी नहीं प्राप्त कर सकी।जबकि पुरुष और  नारी दोनों को प्रकृति ने समान अधिकार दिए हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं तो फिर एक व्यक्ति सर्वोपरि कैसे हो सकता है और वह भी पुरुष।
मनुस्मृति के अध्याय 9में श्लोक 45 में विवाह संबंधी संस्कार के लिए स्त्री को एक वस्तु की तरह दान किया जाता है यह कैसी प्रथा हुई जब कि सृष्टि चलाने के लिए पुरुष और महिला के समान भागीदारी है फिर क्यों उसे वस्तु की तरह दान करके पुण्य कमाया जाता है ।वह वस्तु  जिसे उसका पति  छोड़ सकता है उसको गिरवी रख सकता है लेकिन कोई पत्नी यह अधिकार नही रखती है। नारी की परिभाषा एक दासी के रूप में  की गई है जो हर रूप में बस पुरुष की सेवा ही करेगी। और वह उसे छोड़ ना दें इस हीन भाव से ग्रसित होती हुई हमेशा आतंकित रहती है।
विवाह संस्कार में स्त्री को एक दान की वस्तु बताई जाने से यह साबित हो जाता है। कि कुछ प्रभावशाली पुरुषों ने अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए नारी के वर्चस्व को दबा दिया। और इस प्रकार जाल बुने कि वह अपनी स्वतंत्र सोच का अनुकरण ही नहीं कर पाए सिर्फ घर की चारदीवारी में उसे घर परिवार से बाहर कभी निकलने ही नहीं दिया। जिसने निकलने की कोशिश की उन पर चरित्र हीनता का आरोप लगाकर उनके उत्साह को बराबर तोड़ा गया। इसी प्रकार मनुस्मृति के एक और अध्याय 9 श्लोक 17 जिसमें स्त्री को कामी और वस्त्रों से प्रेम करने वाली, बेईमान , दुराचारी बताया गया है। यहां तक कि उसे नर्क का द्वार माना गया है। इस सोच के पीछे कुछ अहमवादी पुरुषों की मानसिकता रही होगी ।जिसने नारी जाति के लिए ऐसे शब्द लिखे होंगे जबकि उस को धरती पर लाने वाली भी कोई नारी ही होगी अगर वह पुरुष अपनी मां का सम्मान नहीं कर सकता। तो वह अन्य नारी जाति का क्या सम्मान करेगा। मनुस्मृति की आड़ में समाज के जिन पुरुष ठेकेदारों ने इस ग्रंथ को अपने हित में अपने वर्चस्व को बनाए रखने के लिए नए नियम गड़े हैं उनमें स्त्रियों को एक वस्तु से ज्यादा सम्मान नहीं दिया हैऔर समाज को एक ऐसी सोच दी है अगर  नारी जब तक खामोश है उसका सम्मान है लेकिन जब वह अपने हितों के लिए लड़ती है तो उसे चरित्रहीन की पदवी देकर उसके सम्मान को ठेस कर उसे अपवित्र करार दिया जाता है । वर्चस्व की  इस लड़ाई  में समाज के निर्माण में नारी जाति पर हुए अत्याचारों के लिए और उन्हें रोकने के लिए कई महान पुरुषों ने जो आंदोलन किये है वह भी भुलाया नहीं जा सकता । समाज को मिलकर एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहिए ।एक ऐसी सोच देनी चाहिए ।जितना एक पुरुष भागीदार है उतनी ही नारी फिर दोनों में किस एक बड़ा या छोटा नहीं हो सकता । मनुस्मृति के कुछ अध्याय और श्लोकों  में चाहे नारी के  अस्तित्व को धूमिल किया गया हो लेकिन भगवान शिव का अर्धनारीश्वर  स्वरूप धारण कर के समाज को यही संदेश देना है कि इस धरा पर प्रकृति में पुरुष और नारी का समान महत्व है ।ना एक दूसरे से कम है और ना ही दूसरा बड़ा  है । दोनों सम्मान गति से जीवन को चलाएं मान कर रहे हैं।
— प्रीति शर्मा “असीम” 

प्रीति शर्मा असीम

नालागढ़ ,हिमाचल प्रदेश Email- [email protected]