अंतर्मन
अंतर्मन जब मौन हो गया
पीड़ा का पल गौण हो गया।
आँख मूँदकर पलकों ने सब
भाव हृदय के छिपा लिए हैं
रुद्ध कंठ ने दर्द रोक कर
गान स्वरों के दबा लिये हैं
पूछ रहा है बैरागी मन
आज पराया कौन हो गया?
आँखों से बहकर के आँसू
मुसकानों को सींच रहे हैं
शोणित में डूबे आखर ये
चित्र हृदय का खींच रहे हैं
रोम-रोम हँसनेवाला तन
आज व्यथा का भौन हो गया।
— शरद सुनेरी