आज़ादी का अनुराग उत्पन्न कर
साहित्य के संसार में हर तीसरे पन्ने पर शायद एक पूरा समुन्दर भरा पड़ा होगा स्त्री विमर्श में लहराता। पर युगों से चले आ रहे इस मंथन से अभी भी स्त्रियों के प्रति अन्याय का अनमनापन ही उभरा। आज 21 वीं सदी में भी कलम से उठती आग पन्नों का सीना छलनी करती है। ये प्रक्रिया चालू है इसका मतलब अभी कुछ ओर सदियाँ इंतज़ार करना होगा कुछ स्त्रियों को आज़ादी का आचार चखने के लिए। अडोल चित से अंगीकार कर लिया है कुछ स्त्रियों ने दमन का दरख़्त। प्रताड़ना के धरातल पर ही उम्र काटना चाहती है।
क्यूँ कुछ चित्त में विरोध का वैराग्य उत्पन्न नहीं होता ? छोटी-छोटी विरक्तियां, विक्षोभ और विषाद की आदी होते अपना लेती है खुद के लिए बनाए सामाजिक नियमों को। नहीं निकल पड़ती मुक्ति के मार्ग पर चेतना को तलाशने। स्वभाव से सन्यासिनी अभाव में भी गुज़ारा कर लेती है। देहरी पर खड़े आज़ादी की चकाचौंध से आकृष्ट तो होती है पर अनुराग उत्पन्न नहीं कर पाती। भारतीय परंपरा के पदचिन्ह पर गाढ़ लिया है खुद को, उसी दायरे से लिपटी बाहरी आयाम को छूने की कोशिश तक नहीं करती। आत्मनाश की क्षितिज पर खड़े आँधियों से मत उलझो इस बार नारी दिवस पर प्रण लो, त्रासदी के ज्वालामुखी का विद्रोह करो जोगन नहीं ज्वार बनो। स्वप्न सजी आँखों को उत्साह दो दहलीज़ के बाहर एक हसीन दुन्यवी मेला तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है। मटमैले लाचार, बेबस, कमज़ोर जैसे उपनामों को धो ड़ालो, कल्पनाओं को सुरभित करो।
मांग में चुटकी सिंदूर भर बन बैठे रथी को अपना दूसरा पहलू भी दिखा दो। संकल्प का शमा तो बाँधो विमर्श में उठती हर कलम से स्याही निचोड़ लेंगे। भरमाने वाली वृत्तियों को तोड़ देंगे। यशोधर, आम्रपाली, मैत्रेयी सी ब्रह्मवादिनी बनों, अपमान के आगे न झुको द्रौपदी सी मुखर बनों। खुद के भीतर आत्मबल का सर्जन करो प्रतिक्षित है साहित्य की धरोहर विमर्श की जगह प्रशंसा के अध्याय रचो। आने वाली अस्मिता के लिए ज्ञानमार्गी बन प्रेरणा और आलम्बन बनों।
स्त्री सृष्टि की संचालिका है स्त्री के वजूद से ईश रचता है संसार, स्त्री के अस्तित्व से संगीत बहता है जिसकी लयबद्ध ध्वनि से सारी ऋचाएँ रोशन है। स्त्री उर्जा है, आँच है, स्त्री प्रेरणा है स्त्री पर्याय है कोई सिगरेट नहीं की आधी अधूरी सुलगती हुई कुचल दी जाए।
नाहि कोई डिस्पोज़ेबल चीज़ की उपयोग किया ओर फैंक दी जाए। स्त्री तू आईना है इतराती चल वो दिन गए, वो बातें पुरानी हुई जब स्त्री की परिभाषा अबला, बेचारी, लाचार, बेबस की थी आज की नारी का अपना एक आसमान है जिसमें उड़ सकती है बिना कोई बंदिश के।
खुद का एक परिचय है अपने चेहरे पर शहद सी धूप चढ़ा, पलकों पर सपने पाल, मुस्कुराहट को पहचान बनाकर ज़िंदगी को हैरान कर।
किसीकी तारिफ़ की मोहताज नहीं तू अपने आप में बेमिशाल है। कड़वे तीखे धारदार उलाहनों का जवाब दे ज़िंदगी के प्रवास का तू अहम किरदार है। अपने वजूद को तराश ज़माने को मौका दे तुझे नोटिस करने का। निष्ठा ओर आत्मविश्वास से अपने व्यक्तित्व को एक निखार दे तू बोझ नहीं बल है, परिवार की तू नींव है,
अपने अंदर के हुनर को पहचान कर हौसलों की मिट्टी से आकार दो तुम्हारे तन के कण-कण में रचनाएँ बसी है किसी एक को सहला कर देखो जी उठेगी।
किसीके वश में रहना नहीं सबको वश में करना सिख, याद रख तेरे बिना सबकुछ अधूरा है पर तू अपने आप में संपूर्ण है तू बिना पुरुष के जी सकती है, पुरुष तेरे बिना अकेला है, संसार तेरे बिना सूना है,
रेत सी झर मत पत्थर सी तनी रहे तू बेशकीमती नगीना है।
— भावना ठाकर