रिश्ते भी अब यूज़ एन्ड थ्रो हो गए हैं
आदमी जब हरे पतों की
पतल में खाता था
आंगन में चट्टाई पर बैठता था
जुते दूर उतारकर आता था
हरे पत्तों की तरह रिश्ते हमेशा हरे रहते थे
दिलों में सबके प्यार के दरिया बहते थे
लोग फिर मिट्टी के बर्तन बनाने लगे
बड़े मजे से उनमें खाना खाने लगे
मिट्टी के बर्तनों से मिट्टी की खुसबू आती थी
जो मिट्टी से जुड़े होने का एहसास कराती थी
फिर पीतल के बर्तन में लोग खाना खाने लगे
हरी पत्तल व मिट्टी के बर्तनों के दिन जाने लगे
रिश्ते भी अब कमज़ोर होते होते कराहने लगे
लोग कलई करके साल छ: महीने में चमकाने लगे
कांच का बर्तन भी अब बाजार में आ गया
देखने में खूबसूरत सबके मन को भा गया
चटक चटक कर टूटने लगा कांच भी
रिश्तों को भी कांच अपनी तरह चटका गया
आजकल बर्तनों में कागज़ का इस्तेमाल होता है
मज़बूत नहीं होता एकदम पहचान खोता है
रिस्ते भी अब कागज़ की तरह हो गए है
इस ज़माने में कोई अपना नहीं यूज़ एन्ड थ्रो हो गए हैं
— रवींद्र कुमार शर्मा