संयोग
अब इसे संयोग नहीं तो और क्या कहूँ आप ही बताइए कि आभासी संचार माध्यमों ने कुछ ऐसे नये रिश्तों को जन्म दे दिया कि कल्पना करना कठिन लगता है कि इन रिश्तों के मध्य उपजे आत्मिक संबंध कहीं से भी वास्तविक रिश्तों से कम महत्वपूर्ण अहसास नहीं कराते।बहुतों के साथ हुआ होगा,हो रहा होगा या आगे भी होता ही रहेगा।जहाँ आपको रिश्तों की मिठास,अपनापन, प्यार, तकरार,एक दूसरे की चिंता और वो सब कुछ मिलता है,जो कभी कभी वास्तविक रिश्तों में भी नहीं मिलता, तो ऐसा भी होता है कि जिस रिश्ते का अधूरापन आपको सालता रहता है,वह आभासी माध्यम से बने रिश्तों से पूरा हो जाता है।हालांकि ये कहने में भी कोई संकोच न कि हर जगह कुछ न कुछ गलत भी हो जाता है,लेकिन ऐसा वास्तविक रिश्तों में भी तो होता है।
अक्सर आभासी दुनियाँ में प्रथम संबोधन रिश्तों की गंभीरता का बोध करा देते हैं,जिसमें आप इस हद तक बँध जाते हैं,जहाँ से आप खुद को छुड़ाना भी नहीं चाहते।जहाँ आप प्यार, दुलार, मान,सम्मान, शिकवा,शिकायत, रुठना,चिढ़ाना, छेड़ना, मनाना,चिंता, खुशियां बाँटना और वो सब करते कराते हैं,जो उस पवित्र पावन रिश्ते की जरूरत है।
और तो और बहुत बार तो आप उससे डरते भी,आपको भी पता है कि सामने वाले से न डरकर भी कुछ नहीं होने वाला, फिर भी आप डरते ही नहीं उसके आज्ञाकारी भी होते हैं,क्योंकि सामने वाला/वाली आपके लिए जो सोचता/सोचती, कहता/, बताता/बतातीऔर अधिकार जताता/जताती है,उसके लिए आपके मन में लगाव, सम्मान, श्रद्धा जो हो जाती है।उसके पीछे भी कारण है कि कोई आप में सिर्फ अच्छाइयाँ नहीं ढूंढता,बल्कि समाज में आपको अच्छे इंसान के रूप में देखना चाहता है।तभी तो आप अपनी हर छोटी बड़ी बात उसके सामने रखते जाते हैं और वहीं से वो आप में वह सब देखना चाहता/चाहती है,जो आपको औरों से अलग दिखाने/दिखाने की चाह रखता/रखती हो। आपके लिए उसके मन में माँ, बाप, भाई, बहन, बेटी, शुभचिंतक, मार्गदर्शक,मित्र जैसे भाव महसूस होते हैं। तभी तो वो आपको निर्देशित, आदेशित,प्रेरित करते/करती हैं।
आभासी संबंधों में उम्र बहुत मायने नहीं रखती, तभी तो बड़ा होकर भी आप छोटा और छोटा होकर भी बड़ा बन जाते ही नहीं उसी अनुरूप व्यवहार भी करते हैं और खुश भी होते हैं।
बहुत बार आभासी दुनियां के रिश्ते को निभाने/खुशियों के लिए खून, किडनी तो क्या जान भी देकर रिश्तों की पवित्रता, मर्यादा को अमरत्व प्रदान कर जाते हैं।