ग़ज़ल
चार दिन की चाहत का हमने ये सिला पाया,
आहे आतशी पाई ,ख्वाब आबला पाया।
ज़ख्म पर नमक देकर इस तरह गया है वो,
दिल हुआ है खूँगस्ता ,मैं न छटपटा पाया।
जिंदगी हवादिस की ,बेहिसाब बेचैनी,
हमने यार पाया तो , यार बेवफ़ा पाया।
इश्क में तेरे हमने खुद को यूं मिटा डाला,
दिल से तेरी यादों के नक्श ना मिटा पाया।
कोई हमसे पूंछे तो कैसे – कैसे दिन देखे,
मंजिलों की ख्वाहिश में हमने रास्ता पाया।
वस्ल की घड़ी हमने ,इस तरह गुजारी है,
कह न पाए वो कुछ भी ,मैं भी ना बता पाया।
— अभिलाषा सिंह