असत्य की होलिका जलती रही
सत्य के प्रह्लाद की होती विजय,असत्य की जलती रही होलिका
इस ख़ुशी में नाचते गाते सभी,और रचते रास फागुन मॉस का
प्रेम रास में भीग गोपी गोपियाँ,मारे पिचकारी कृष्ण को राधिका
भेद भाव भूल कर सरे मिलें ,कोई दुर्भाव न हो किसी बात का
महकें चहकें सब के मन की क्यारियां,घूमें झूमें मौज मेला मस्ती का
तरंग भरे ह्रदय से हम सब होली पर,रंग लगाएं गाल पर गुलाल का
— डा केवलकृष्ण पाठक