वेदों के शिव
हिन्दू समाज में मान्यता है कि वेद में उसी शिव का वर्णन है जिसके नाम पर अनेक पौराणिक कथाओं का सृजन हुआ है। उन्हीं शिव की पूजा-उपासना वैदिक काल से आज तक चली आती है। किन्तु वेद के मर्मज्ञ इस विचार से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार वेद तथा उपनिषदों का शिव निराकार ब्रह्म है।
पुराणों में वर्णित शिव जी परम योगी और परम ईश्वरभक्त थे। वे एक निराकार ईश्वर “ओ३म्” की उपासना करते थे। कैलाशपति शिव वीतरागी महान राजा थे। उनकी राजधानी कैलाश थी और तिब्बत का पठार और हिमालय के वे शासक थे। हरिद्वार से उनकी सीमा आरम्भ होती थी। वे राजा होकर भी अत्यंत वैरागी थे। उनकी पत्नी का नाम पार्वती था जो राजा दक्ष की कन्या थी। उनकी पत्नी ने भी गौरीकुंड, उत्तराखंड में रहकर तपस्या की थी। उनके पुत्रों का नाम गणपति और कार्तिकेय था। उनके राज्य में सब कोई सुखी था। उनका राज्य इतना लोकप्रिय हुआ कि उन्हें कालांतर में साक्षात् ईश्वर के नाम शिव से उनकी तुलना की जाने लगी।
वेदों के शिव–
हम प्रतिदिन अपनी सन्ध्या उपासना के अन्तर्गत नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नम: शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च (यजु० १६/४१) के द्वारा परम पिता का स्मरण करते हैं।
अर्थ- जो मनुष्य सुख को प्राप्त कराने हारे परमेश्वर और सुखप्राप्ति के हेतु विद्वान् का भी सत्कार कल्याण करने और सब प्राणियों को सुख पहुंचाने वाले का भी सत्कार मङ्गलकारी और अत्यन्त मङ्गलस्वरूप पुरुष का भी सत्कार करते हैं, वे कल्याण को प्राप्त होते हैं।
इस मन्त्र में शंभव, मयोभव, शंकर, मयस्कर, शिव, शिवतर शब्द आये हैं जो एक ही परमात्मा के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हुए हैं।
वेदों में ईश्वर को उनके गुणों और कर्मों के अनुसार बताया है–
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्। -यजु० ३/६०
विविध ज्ञान भण्डार, विद्यात्रयी के आगार, सुरक्षित आत्मबल के वर्धक परमात्मा का यजन करें। जिस प्रकार पक जाने पर खरबूजा अपने डण्ठल से स्वतः ही अलग हो जाता है वैसे ही हम इस मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जायें, मोक्ष से न छूटें।
या ते रुद्र शिवा तनूरघोराऽपापकाशिनी।
तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभि चाकशीहि।। -यजु० १६/२
हे मेघ वा सत्य उपदेश से सुख पहुंचाने वाले दुष्टों को भय और श्रेष्ठों के लिए सुखकारी शिक्षक विद्वन्! जो आप की घोर उपद्रव से रहित सत्य धर्मों को प्रकाशित करने हारी कल्याणकारिणी देह वा विस्तृत उपदेश रूप नीति है उस अत्यन्त सुख प्राप्त करने वाली देह वा विस्तृत उपदेश की नीति से हम लोगों को आप सब ओर से शीघ्र शिक्षा कीजिये।
अध्यवोचदधिवक्ता प्रथमो दैव्यो भिषक्।
अहीँश्च सर्वाञ्जम्भयन्त्सर्वाश्च यातुधान्योऽधराची: परा सुव।। -यजु० १६/५
हे रुद्र रोगनाशक वैद्य! जो मुख्य विद्वानों में प्रसिद्ध सबसे उत्तम कक्षा के वैद्यकशास्त्र को पढ़ाने तथा निदान आदि को जान के रोगों को निवृत्त करनेवाले आप सब सर्प के तुल्य प्राणान्त करनेहारे रोगों को निश्चय से ओषधियों से हटाते हुए अधिक उपदेश करें सो आप जो सब नीच गति को पहुंचाने वाली रोगकारिणी ओषधि वा व्यभिचारिणी स्त्रियां हैं, उनको दूर कीजिये।
या ते रुद्र शिवा तनू: शिवा विश्वाहा भेषजी।
शिवा रुतस्य भेषजी तया नो मृड जीवसे।। -यजु० १६/४९
हे राजा के वैद्य तू जो तेरी कल्याण करने वाली देह वा विस्तारयुक्त नीति देखने में प्रिय ओषधियों के तुल्य रोगनाशक और रोगी को सुखदायी पीड़ा हरने वाली है उससे जीने के लिए सब दिन हम को सुख कर।
उपनिषदों में भी शिव की महिमा निम्न प्रकार से है-
स ब्रह्मा स विष्णु: स रुद्रस्स: शिवस्सोऽक्षरस्स: परम: स्वराट्।
स इन्द्रस्स: कालाग्निस्स चन्द्रमा:।। -कैवल्यो० १/८
वह जगत् का निर्माता, पालनकर्ता, दण्ड देने वाला, कल्याण करने वाला, विनाश को न प्राप्त होने वाला, सर्वोपरि, शासक, ऐश्वर्यवान्, काल का भी काल, शान्ति और प्रकाश देने वाला है।
प्रपंचोपशमं शान्तं शिवमद्वैतम् चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः।।७।। -माण्डूक्य०
प्रपंच जाग्रतादि अवस्थायें जहां शान्त हो जाती हैं, शान्त आनन्दमय अतुलनीय चौथा तुरीयपाद मानते हैं वह आत्मा है और जानने के योग्य है।
यहां शिव का अर्थ शान्त और आनन्दमय के रूप में देखा जा सकता है।
सूक्ष्मातिसूक्ष्मं कलिलस्य मध्ये विश्वस्य सृष्टारमनेकरुपम्।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति।। -श्वेता० ४/१४
परमात्मा अत्यन्त सूक्ष्म है, हृदय के मध्य में विराजमान है, अखिल विश्व की रचना अनेक रूपों में करता है। वह अकेला अनन्त विश्व में सब ओर व्याप्त है। उसी कल्याणकारी परमेश्वर को जानने पर स्थाई रूप से मानव परम शान्ति को प्राप्त होता है।
नचेशिता नैव च तस्य लिंङ्गम्।। -श्वेता० ६/९
उस शिव का कोई नियन्ता नहीं और न उसका कोई लिंग वा निशान है।
योगदर्शन में परमात्मा की प्रतीति इस प्रकार की गई है-
क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:।। १/१/२४
जो अविद्यादि क्लेश, कुशल, अकुशल, इष्ट, अनिष्ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है, वह सब जीवों से विशेष ईश्वर कहाता है।
स एष पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात्।। १/१/२६
वह ईश्वर प्राचीन गुरुओं का भी गुरु है। उसमें भूत भविष्यत् और वर्तमान काल का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि वह अजर, अमर नित्य है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने भी अपने पुस्तक सत्यार्थप्रकाश में निराकार शिवादि नामों की व्याख्या इस प्रकार की है–
(रुदिर् अश्रुविमोचने) इस धातु से ‘णिच्’ प्रत्यय होने से ‘रुद्र’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यो रोदयत्यन्यायकारिणो जनान् स रुद्र:’ जो दुष्ट कर्म करनेहारों को रुलाता है, इससे परमेश्वर का नाम ‘रुद्र’ है।
यन्मनसा ध्यायति तद्वाचा वदति, यद्वाचा वदति तत् कर्मणा करोति यत् कर्मणा करोति तदभिसम्पद्यते।।
यह यजुर्वेद के ब्राह्मण का वचन है।
जीव जिस का मन से ध्यान करता उस को वाणी से बोलता, जिस को वाणी जे बोलता उस को कर्म से करता, जिस को कर्म से करता उसी को प्राप्त होता है। इस से क्या सिद्ध हुआ कि जो जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही फल पाता है। जब दुष्ट कर्म करनेवाले जीव ईश्वर की न्यायरूपी व्यवस्था से दुःखरूप फल पाते, तब रोते हैं और इसी प्रकार ईश्वर उन को रुलाता है, इसलिए परमेश्वर का नाम ‘रुद्र’ है।
(डुकृञ् करणे) ‘शम्’ पूर्वक इस धातु से ‘शङ्कर’ शब्द सिद्ध हुआ है। ‘य: शङ्कल्याणं सुखं करोति स शङ्कर:’ जो कल्याण अर्थात् सुख का करनेहारा है, इससे उस ईश्वर का नाम ‘शङ्कर’ है।
‘महत्’ शब्द पूर्वक ‘देव’ शब्द से ‘महादेव’ शब्द सिद्ध होता है। ‘यो महतां देव: स महादेव:’ जो महान् देवों का देव अर्थात् विद्वानों का भी विद्वान्, सूर्यादि पदार्थों का प्रकाशक है, इस लिए उस परमात्मा का नाम ‘महादेव’ है।
(शिवु कल्याणे) इस धातु से ‘शिव’ शब्द सिद्ध होता है। ‘बहुलमेतन्निदर्शनम्।’ इससे शिवु धातु माना जाता है, जो कल्याणस्वरूप और कल्याण करनेहारा है, इसलिए उस परमेश्वर का नाम ‘शिव’ है।
निष्कर्ष- उपरोक्त लेख द्वारा योगी शिव और निराकार शिव में अन्तर बतलाया है। ईश्वर के अनगिनत गुण होने के कारण अनगिनत नाम है। शिव भी इसी प्रकार से ईश्वर का एक नाम है। आईये निराकार शिव की स्तुति, प्रार्थना एवं उपासना करें।