सामाजिक

वृद्ध नहीं, बुद्ध

“जिंदगी जिंदादिली का नाम है।” यह केवल एक सामान्य वाक्य नहीं, एक मंत्र है। ऐसे तो जीवन के हर पड़ाव पर यह मंत्र जरूरी है किंतु वृद्धावस्था में तो यह सबसे जरूरी मंत्र है।
वृद्ध होने का ये मतलब नहीं कि एक कोने में पड़े रहें और समय, समाज को कोसते हुए मृत्यु की प्रतीक्षा करें। वृद्ध होने का अर्थ है अनुभव का भंडार। वृद्ध होने का अर्थ है वृहत दर्शन।
वृद्ध होने का अर्थ है बुद्ध होना, प्रबुद्ध होना।

वृद्ध व्यक्तियों के पास जो अनुभव है उन्हें अगली पीढ़ी के साथ साझा करना चाहिए। निस्संदेह समय बहुत तेजी से बदल गया है और ऐसा लग सकता है कि पुराने दिनों के अनुभव किस काम के, पर ऐसा नहीं है। तकनीक और जीवनशैली चाहे बदल गए हों लेकिन जीवन की मूल अवधारणाएं, चुनौतियां, समस्याएं आज भी वहीं हैं। वृद्ध व्यक्तियों के अनुभव इन स्थितियों का सामना करने में बहुत सहायक हो सकते हैं।

लॉकडाउन में जब तरुण की नौकरी छूटी तो वह बहुत तनाव और अवसाद में था। उस समय उसके पिताजी ने उसे बताया कि कैसे वे इससे भी विकट स्थितियों से गुजरें हैं और आज इस मुकाम पर हैं। पिताजी के संघर्ष की कहानियों ने तरुण के सोए उत्साह को जगा दिया।
आशा ताई की दोनों बहुओं में बनती नहीं थी पर अआशा ताई की देवरानी से मधुर संबंधों की कहानियां सुन सुनकर दोनों के संबंधों में गर्माहट आ गई।
यही है एक वृद्ध का दायित्व। वृद्ध घर में एक ऊर्जा स्त्रोत की तरह होता है, एक सेतु होता है, जो घर के सभी सदस्यों को आपस में जोड़कर रखता है। नई पीढ़ी में नैतिक मुल्यों का विकास जितनी कुशलता से घर के बुजुर्ग कर सकते हैं उतना कोई विद्यालय कोई संस्थान नहीं कर सकता। अपनी संस्कृति को भविष्य को हस्तांतरित करने का महती प्रयोजन भी इन बुद्धों के हाथ में ही है।
इन सब चीजों के साथ एक महत्वपूर्ण तथ्य और है। संयम, यह बुद्ध होने का प्रथम लक्षण है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए वृद्ध को चाहिए कि स्वयं को संयमित रखें। न केवल खान पान वरण व्यवहार में भी। युवा सदस्यों की हर बात पर अनावश्यक हस्तक्षेप, टीका टिप्पणी भी अनचाही स्थितियां उत्पन्न कर सकती हैं। इसलिए सही संतुलन आवश्यक है। सुख और दुख के बीच का अंतर यही संतुलन है।

अंत में
लड़खड़ाऊं जब कभी जिंदगी की राह में
थाम लेती हैं मुझे मुस्कुराती झुर्रियां

इसीलिए तो कहते हैं कि घर में बड़े बुजुर्ग का होना बहुत जरूरी है। तो आइए नमन करें सभी वृद्ध जनों नहीं बुद्धजनों को।

— समर नाथ मिश्र