ऋषि दयानन्द ने वेदों से कर्मफल सिद्धान्त निकाला और उसका प्रचार किया
ओ३म्
रविवार दिनांक 14-3-2021 को आर्यसमाज धामावाला, देहरादून में ऋषि जन्मोत्सव एवं ऋषि बोधोत्सव के आयोजन श्रद्धा, उत्साह एवं सफलतापूर्वक सम्पन्न हुए। आयोजन के आरम्भ में समाज की भव्य यज्ञशाला में आर्यसमाज के पुरोहित पं. विद्यापति शास्त्री जी ने सन्ध्या कराने के बाद यज्ञ कराया जिसमें श्री नारायण दत्त पांचाल सपत्नीक यजमान बने। यज्ञशाला में बड़ी संख्या में समाज के सदस्य-सदस्यायें एवं श्री श्रद्धानन्द बाल वनिता आश्रम के बच्चे सम्मिलित हुए। यज्ञ के बाद पं. विद्यापति शास्त्री, आर्य बहिन श्रीमती मीनाक्षी पंवार, रितु शर्मा तथा कन्या गुरुकुल महाविद्यालय, देहरादून की छात्राओं द्वारा भजनों व गीतों की प्रस्तुतियां हुईं। एक छात्रा ने सामूहिक प्रार्थना कराई तथा ऋषि बोधोत्सव पर आर्य समाज के विद्वान एवं गुरुकुल कांगडी के प्रोफेसर तथा वेद विभाग के अध्यक्ष डा. सत्यदेव निगमालंकार जी का उद्बोधन हुआ।
आयोजन प्रातः 8.30 बजे आरम्भ होकर पूर्वान्ह 11.30 बजे तक चला। प्रातः 8.30 बजे यज्ञशाला में पुरोहित पं. विद्यापति शास्त्री जी ने सन्ध्या कराई जिसके बाद उन्होंने यज्ञ कराया। यज्ञ के बाद का कार्यक्रम समाज के सभागार में हुआ। कार्यक्रम के आरम्भ में कन्या गुरुकुल महाविद्यालय, देहरादून की 7 छात्राओं ने ऋषि जीवन पर एक सामूहिक गीत प्रस्तुत किया जिसके बोल थे ‘ओ देव दयानन्द देव दयानन्द तुझे हैं सौ सौ वन्दन, करें तेरा अभिनन्दन, ओ देव दयानन्द देव दयानन्द’। कन्याओं के भजन के बाद आर्यसमाज के विद्वान पुरोहित आचार्य पं. विद्यापति शास्त्री जी ने एक भजन ‘सूरज बन दूर किया पापों का घोर अन्धेरा वो देव दयानन्द मेरा, वो देव दयानन्द है मेरा’ प्रस्तुत किया। पंडित जी ने भजन प्रस्तुत करने से पूर्व ऋषि दयानन्द के नारी उत्थान के कार्यों की चर्चा कर उन पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि ऋषि दयानन्द ने धर्म पीड़ित बन्धुओं को बचाया भी और उन्हें तैरना भी सिखाया। पंडित जी के गीत के बाद श्री श्रद्धानन्द आश्रम की एक बालिका ने सामूहिक प्रार्थना कराई। इस कन्या ने कुछ वेदमन्त्रों का उच्चारण कर उनके अर्थ सुनाये। इन मन्त्रों में एक मन्त्र ‘य आत्मा बलदा यस्य विश्व उपासते’ भी था। गायत्री मन्त्र का भी हिन्दी पद्य सहित पाठ किया। कन्या ने कहा कि परमात्मा की दिव्य एवं पवित्र ज्योति विश्व में जगमगा रही है। जल, थल तथा नभ में परमात्मा के समान दूसरी कोई सत्ता नहीं है। सामूहिक प्रार्थना के बाद श्रीमती ऋतु शर्मा ने दो गीत प्रस्तुत किये। पहला गीत था ‘आर्यसमाज की नींव किसने रखी, बतलाते हैं, उस महापुरुष की हम गौरव गाथा गाते हैं।’ श्रीमती ऋतु शर्मा द्व़ारा प्रस्तुत दूसरे भजन के बोल थे ‘ऐ मेरे प्यारे ऋषि, जब तक है ये जिन्दगी, भुलेंगे न हम। तेरे तप व त्याग को, तेरे उस अनुराग को, भूलेगे न हम। धन्य है वह भूमि जिसमें तू पला।’
श्रीमती ऋतु शर्मा के बाद प्रसिद्ध ऋषिभक्त एवं आर्यसमाज के भजनों को शास्त्रीय शैली में प्रस्तुत करने वाली गायिक बहिन श्रीमती मीनाक्षी पंवार जी के तीन भजन हुए। तबले पर उनको युवक श्री शरद ने संगति दी। श्रीमती मीनाक्षी पंवार जी द्वारा प्रस्तुत प्रथम भजन के बोल थे ‘शिवरात्रि बोधरात्रि मूलशंकर जागो, सच्चा शिव पाने के लिए झूठे शिव को त्यागो’। बहिन जी ने दूसरा भजन ‘मेरे देवता के बराबर जहां में कहीं देवता न कोई और होगा। जमाने में होंगे बड़े लोग पैदा, दयानन्द सा न कोई और होगा’ प्रस्तुत किया। बहिन जी द्वारा प्रस्तुत तीसरे भजन के बोल थे ‘किस्मत से मिला है मानव तन, कोई डूब गया कोई तैर गया’। इसके बाद वैदिक विद्वान डा. सत्यदेव निगमालंकार जी का ऋषि बोधोत्सव पर प्रेरणादायक व्याख्यान हुआ।
व्याख्यान के आरम्भ में आर्यसमाज के प्रधान डा. महेश कुमार शर्मा जी ने आज के आयोजन के मुख्य वक्ता डा. सत्यदेव निगमालंकार जी का परिचय दिया। डा. सत्यदेव जी का आर्यसमाज के वरिष्ठ अधिकारी एवं सदस्य श्री ओम्प्रकाश नागिया जी ने पुष्प माला भेंट कर सम्मान किया। समाज के मंत्री श्री धीरेन्द्र मोहन सचदेव जी ने भी मुख्य वक्ता महोदय का पुष्पमाला भेंट कर सम्मान किया। अपने व्याख्यान के आरम्भ में उनसे पूर्व प्रस्तुत भजनों का उल्लेख कर डा. सत्यदेव निगमालंकार जी ने कहा कि संगीत जीवन की एक विधा है। संगीत के बिना जीवन पशु के समान है। उन्होंने कहा कि यह शब्द महाराज भृतहरि जी के हैं। उन्होंने कहा कि सामवेद को संगीत का वेद मान लिया गया है जबकि उसमें सब कलायें विद्यमान हैं। विद्व़ान वक्ता ने कहा कि ऋषि दयानन्द जी का जन्म गुजरात में टंकारा नामक एक ग्राम में सन् 1824 में हुआ था। श्री कर्षनजी तिवारी उनके पिता थे। पिता मूर्तिपूजा में विश्वास रखते थे। उन्होंने कहा कि प्रत्येक माता पिता अपने बच्चे को आर्य वा श्रेष्ठ गुणों वाला बनाने का प्रयत्न करते हैं। स्वामी दयानन्द जी मूल नक्षत्र में जन्में थे इसलिये उनका नाम मूलशंकर रखा गया था। पिता व आचार्यों द्वारा बालक मूलशंकर को संस्कृत भाषा तथा वेद पढ़ाये गये थे। पिता ने अपने पुत्र को अपनी पूजा पद्धति भी सिखाई। बालक मूलशकर को शिवरात्रि पर पिता ने व्रत उपवास कराया था। बालक को बताया गया था कि उनको भगवान शिव के दर्शन होंगे। पिता अपने पुत्र को सायंकाल को शिव मन्दिर ले गये थे। मन्दिर में सब शिव भक्त शिव लिंग को देख रहे थे। बालक मूलशंकर अपने चाचा जी के पास बैठे थे। मूलशंकर नींद को रोकने के उपाय करते रहे। रात्रि का अन्तिम प्रहर आरम्भ हुआ। मन्दिर के अन्दर चूहों के बिल थे। मूलशंकर जी ने देखा कि बिलों से चूहे बाहर निकलें और वहां भक्तों द्वारा चढ़ाये गये प्रसाद को खाने लगे। इससे ऋषि दयानन्द को शिव की मूर्ति में किसी दिव्य शक्ति के होने के प्रति सन्देह हुआ। विद्वान वक्ता ने कहा कि बच्चे प्रायः अपने पिता से डरते हैं। बालक मूलशंकर के मन में भाव जागा कि जो शंकर अपने प्रसाद को चूहों से नहीं बचा सका वह काहे का शंकर है? बालक मूलशंकर घर लौट आये और भोजन कर लिया।
डा. सत्यदेव निगमालंकार जी ने बताया कि प्रत्येक पिता अपनी सन्तान की उन्नति चाहता है। इसी कारण से वह मूलशंकर को अपनी कुल परम्परा का ज्ञान कराने के साथ उसका पालन करा रहे थे। डा. सत्यदेव जी ने कहा कि बालक मूलशंकर जी के मन में आया कि वह सच्चे शिव को ढूढेंगे। इस विचार के प्रभाव से उनमें वैराग्य जागना आरम्भ हो गया था। विद्वान वक्ता ने सत्संग में उपस्थित बच्चों व बड़ों को ऋषि जीवन पर उपलब्ध लघु पुस्तकों को पढ़ने की प्रेरणा की। उन्होंने कहा कि बालक मूलशंकर ने घर का त्याग कर दिया और सच्चे शिव को ढूंढने निकल पड़े। ऋषि दयानन्द ने ब्रह्मचर्य की दीक्षा लेकर शुद्ध चैतन्य नाम ग्रहण किया। कुछ काल बाद उन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया और स्वामी दयानन्द सरस्वती नाम धारण किया। संन्यास इस कारण लिया था कि जिससे उन्हें अपना भोजन पकाने के कार्य से अवकाश मिल सके और यह समय वह विद्या प्राप्ति, उसके अभ्यास,योग व ध्यान आदि कार्यों में लगा सकें। स्वामी दयानन्द ने मथुरा आकर स्वामी विरजानन्द जी से आर्ष व्याकरण का अध्ययन किया। उन्होंने विद्या पूरी होने पर अपने गुरु को उनकी पसन्द की वस्तु लौंग भेंट किये थे। इस अवसर पर गुरु जी ने स्वामी दयानन्द से देश देशान्तर में फैले अज्ञान की चर्चा की थी। उन्होंने कहा कि संसार में अज्ञान फैला हुआ है। यह अज्ञान केवल वेद व उसकी शिक्षाओं के प्रचार से ही दूर हो सकता है। उन्होंने दयानन्द जी से पूछा था कि क्या वह यह काम कर सकते हैं? ऋषि दयानन्द ने गुरु के प्रस्ताव को स्वीकार किया और मथुरा से आगरा प्रस्थान किया। विद्वान वक्ता ने कहा कि दयानन्द जी ने देश का भ्रमण किया। उन्होंने अनुभव किया देश की ऐसी दुर्दशा प्राचीन वैदिक काल में नहीं थी। प्राचीन काल में देश में ज्ञान व विज्ञान भरा पड़ा था। देश की स्थिति और गुरु को दिये वचनों को स्मरण कर उन्होंने वेदों के ज्ञान का प्रचार करने का निश्चय किया। उन्होंने देश से अन्धविश्वास, आडम्बरों, सामाजिक करीतियों तथा अविद्या को दूर करने का निश्चय किया। डा. सत्यदेव जी ने कहा कि देश परतन्त्र था। परतन्त्रता भी एक आडम्बर ही था।
आचार्य डा. सत्यदेव निगमालंकार जी ने मूर्तिपूजा की चर्चा की तथा इसके स्वरूप व विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि मूर्तिपूजा का अन्धविश्वास आज भी प्रचलित है। उन्होंने कहा कि देश में ऐसी स्थिति है कि लोगों को रोटी तथा वस्त्रों के लिए अपना सर्वस्व लूटाना पड़ता है। हमारे देश में लाखों व करोड़ों लोग रोज भूखे सोते हैं। उन्होंने कहा कि देश में लोग महामण्डलेश्वर बनने के लिए 12 करोड़ रुपये खर्च कर देते हैं। उन्होंने आगे कहा कि जैसा पाखण्ड आज देश में फैला हुआ है ऐसा ही स्वामी दयानन्द के समय में भी फैला हुआ था। इसी कारण उन्होंने मूर्तिपूजा का खण्डन किया। आचार्य जी ने मूर्तिपूजा के अनेक उदाहरण दिये। विद्वान वक्ता ने कहा कि ऋषि दयानन्द ने शास्त्रों से कर्म फल सिद्धान्त को निकाला तथा उसका प्रचार प्रसार किया। उन्होंने मूर्तिपूजा रूपी अन्धविश्वास पर विस्तार से प्रकाश डाला। अन्धविश्वास तथा अपने बन्धुओं की कुटिलता का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि हमारे पुजारियों ने मुस्लिम आक्रमणकारियों को बताया कि युद्ध को जीतने के लिए वह गो को आगे कर दें तो हिन्दू राजा गो पर हथियार न उठाने की परम्परा के कारण पराजित हो जायेंगे। आचार्य जी ने ऋषि दयानन्द के ग्रन्थ व्यवहारभानु की प्रशंसा की। इस ग्रन्थ को पढ़ने की आचार्य जी ने बच्चों व बड़ो सबको प्रेरणा की। इस पुस्तक में ऋषि दयानन्द द्वारा वर्णित लाल भुजक्कड़ की कहानी को उन्होंने विस्तार से सुनाया और बताया कि अन्धविश्वास किस सीमा तक भारत में भर गये थे। उन्होंने कहा कि आज भी देश में करोड़ो लाल भुजक्कड़ हैं। आचार्य जी ने हरिद्वार के कुम्भ मेले में होने वाले अन्धविश्वासों की भी चर्चा की। उन्होंने कहा कि आज देश में ऋषि दयानन्द के समय से अधिक अन्धविश्वास हैं। इसके उन्होंने अनेक उदाहरण भी दिए। उन्होंने अलंकारिक भाषा में कहा कि ऋषि दयानन्द ने सैकड़ों लाल भुजक्कड़ों पर तलवार चलाई। आचार्य जी ने श्रोताओं को ‘अजा यज्ञ’ के प्रचलित तथा यथार्थ दोनों प्रकार के अर्थ बताये। आचार्य जी ने कहा कि आरएसएस देश का एक सबसे अनुशासित संगठन हैं। उन्होंने मेरठ में देखा कि लाखों लोगों के आयोजन में कोई न तो फोटो खींच रहा था न किसी अन्य प्रकार का व्यवधान वहां हुआ। यदि वहां एक सूई भी गिर जाती तो उसे सुना जा सकता था। आचार्य जी ने आरएसएस के अनुशासन की प्रशंसा की। आचार्य जी ने इसी क्रम में गुरुकुलों के आचार्य व आचार्याओं द्वारा छोटे बच्चों के सभी अंगों को शुद्ध करने व उन्हें वेदज्ञान से युक्त करने सहित वेदों का आचरण कराने के कार्य को अजायज्ञ की संज्ञा दी। आचार्य जी ने अश्वमेध यज्ञ के सत्यस्वरूप पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने अपने वक्तव्य को विराम देते हुए कहा कि हमें अपने गुरुकुलो को बढ़ाना होगा। समाज, दीन, दलित, शोषित तथा वंचितों को आर्य व श्रेष्ठ बनाना होगां। ऐसा करने पर ही हमारा ऋषि बोधोत्सव मनाना सार्थक होगा।
आर्यसमाज के प्रधान डा. महेश कुमार शर्मा जी ने ऋषि बोधोत्सव वक्तव्य के लिए डा. सत्यदेव निगमालंकार जी को धन्यवाद किया। डा. शर्मा जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द जी का जन्म गुजरात में मोरवी नगर के अन्तर्गत डेमी नदी के तट पर स्थित टंकारा ग्राम के जीवापुर मोहल्ले में संवत् 1881 के फाल्गुन की कृष्णा दशमी वा 12-2-1824 शनिवार को हुआ था। प्रधान जी ने ऋषि दयानन्द के पिता तथा पितामह के नाम भी श्रोताओं को बताये। उन्होंने कहा कि ऋषि दयानन्द जी ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। डा. शर्मा जी ने कहा कि ऋषि दयानन्द जी की माता का नाम अज्ञात है। 14 वर्ष की अवस्था में ऋषि दयानन्द के मन में ज्ञान की ज्योति कौंधी थी। डा. शर्मा जी ने शिवरात्रि के दिन ग्राम के एक शिवालय में ऋषि दयानन्द को हुए बोध की चर्चा की। उन्होंने कहा कि इस बोध दिवस के बाद ऋषि दयानन्द ने जीवन भर मूर्तिपूजा कभी नहीं की। उन्हें प्रलोभन मिले परन्तु वह कभी झुके नहीं। डा. महेश कुमार शर्मा जी ने ऋषि दयानन्द जी को अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किये। ऋषि बोधोत्सव पर्व पर उन्होंने सभी ऋषि भक्तों व श्रोताओं को बधाई दी। डा. शर्मा ने आर्यसमाज के सभी सदस्यों को कोरोना की वैक्सीन लेने की भी सलाह दी। जिन लोगों ने वैक्सीन ले ली है, उनमें से कुछ लोगों के नाम भी उन्होंने सदस्यों को बताये। शर्मा जी ने आर्यसमाज को प्राप्त हुए दान की सूचना दी तथा सभी दान दाताओं को धन्यवाद किया। कार्यक्रम की समाप्ति से पूर्व श्री श्रद्धानन्द बाल वनिता आश्रम की एक कन्या नन्दिनी ने आर्यसमाज के दस नियमों को पढ़ा। उनके साथ सभी सदस्यों ने भी नियमों को बोला। कार्यक्रम के अन्त में आर्यसमाज के पुरोहित पं. विद्यापति शास्त्री जी ने शान्तिपाठ कराया। पुरोहित जी ने ऋषि दयानन्द, आर्यसमाज, वैदिक धर्म, भारत माता और गो माता के जय घोष किये व कराये। सबसे अन्त में सबने ऋषि बोधोत्सव पर्व के उपलक्ष्य में सहभोज किया। आयोजन में प्रसाद व भोजन की प्रशंसनीय व्यवस्था की गई थी। आज के आयोजन में सदस्यों की उपस्थिति उत्साहवर्धक थी। पूरा हाल सदस्यों व ऋषिभक्तों से भरा हुआ था। हमें भी आज के कार्यक्रम में भाग लेकर प्रसन्नता व ज्ञान लाभ हुआ। सभी सदस्यों व मित्रों से मिलकर हमने प्रसन्नता का अनुभव किया। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य