जीवन स्वयं गढ़ेंगी हम
आसमान में उड़ने का कौशल है आजादी दो।
गिरि-शिखर झुकाने का साहस बल है आजादी दो।
मां पोषण-प्यार, दुलार हमें भी दो अब बेटों-सा,
सागर के सीने पर शौर्य लिखेंगी आजादी दो।।
बढ़े चरण न अब रोक सकेंगी नुकीली चट्टानें।
मंजिल पर कदम रुकेंगे संकल्प हृदय में ठाने।
तूफानों के शीश कुचलने का दमखम हममें है,
जीवन स्वयं गढ़ेंगी हम, पढ़ने की आजादी दो।
बीन राह के कंटक बाधाओं से हम खूब लड़े।
नभ, धरा, सागर पर कहां नहीं हमारे कदम पड़े।
श्वेत हिमालय की चादर पर पग-चिन्ह बनाये हैं,
फिर भी क्यों बंधन इतने, अब हमको आजादी दो।।
— प्रमोद दीक्षित मलय