कुछ भी कहो, कुछ भी करो
बहुत है झेला, बहुत है भोगा,
शेष रही कोई, चाह नहीं है।
कुछ भी कहो, कुछ भी करो,
किसी की कोई, परवाह नहीं है।।
प्रताड़ना रूपी, प्रेम था पाया।
अभावो ने भी था ठुकराया।
तप्त धरा पर नंगे पाँव चल,
हमने बसंत का राग सुनाया।।
बचपन भूख से पल-पल खेला,
जवानी काल कुछ याद नहीं है।
कुछ भी कहो, कुछ भी करो,
किसी की कोई, परवाह नहीं है।।
जन्म लिया, तब घर नहीं अपना।
अकेलेपन में, पड़ा था तपना।
शिक्षा काल, ठहराव हुआ ना,
नहीं किसी का, नाम थ जपना।
युवावस्था संघर्ष में बीती,
पूरी हुई कोई चाह नहीं है।
कुछ भी कहो, कुछ भी करो,
किसी की कोई, परवाह नहीं है।।
कर्म के पथ पर, अडिग रहे हम।
स्वार्थ के आगे, नहीं झुके हम।
भीड़ में भी, हम रहे अकेले,
अपने कहकर, लूटे गए हम।
पीड़ाओं का अभ्यास हो गया,
भरते अब हम, आह नहीं है।
कुछ भी कहो, कुछ भी करो,
किसी की कोई, परवाह नहीं है।।