शुद्धिकरण और हमारी संस्कृति
प्राचीन काल में जब भी किसी राजा का राज्याभिषेक होता था, उसे एक दिन पूर्व अनेक तरह की औषधियों से लेप आदि से स्नान करवाया जाता, विभिन्न नदियों के पवित्र जल का उपयोग होता। इस संस्कार को शुद्धिकरण से जोड़कर ही देख सकते है। आज भी ग्रामीण भारत मे गांव के लोग एक दूसरे से कुछ दूरी पर घर बनाते है, उनका यह विचार प्राचीन भारत के संक्रमण को रोकने के विचार की ही देन है ताकि यदि एक व्यक्ति किसी रोग से संक्रमित भी होता है तो केवल उसके परिवार को ही देखरेख व चिकित्सा की आवश्यकता रहे।
नदियों में सिक्के डालने का चलन भी शुद्धिकरण की ही देन है, प्राचीन भारत मे राजाओं के द्वारा तांबे के सिक्के प्रचलन में थे, भारत सदैव से विज्ञान का ज्ञाता रहा, तभी से सिक्कों को नदी में प्रवाहित करके उनका आशीर्वाद लेने का विचार बना, क्योंकि तांबा जल को शुद्ध करता है, दुर्भाग्य से आज लोहे के सिक्के चलन में है, परन्तु सिक्के नदी में डालने का विचार वही बना हुआ है, इस हेतु से कोई तांबे का पात्र लेकर उसे नदी में प्रवाहित करना उचित रहेगा।
सेनेटाइजर के वैकल्पिक साधन के रूप में उस समय औषधीय गुण वाले गौमूत्र का उपयोग प्रचलन में था। स्नान, यज्ञ, हवन, संस्कार, पूजन आदि में गौ मूत्र का उपयोग शुद्धिकरण के लिए किया जाता था। शुद्धिकरण की ही रीति अनुसार यज्ञ में बैठने वाले जोड़े को नए अंग वस्त्र पहनने होते थे, क्योंकि अधिक समय तक चलने आप यज्ञ के कारण यह व्यवस्था बनाई गई थी , जिससे उन्हें किसी भी तरह के
संक्रमण से बचाया जा सके।
जन्म हो या अंतिम संस्कार। दोनों ही परिस्थिति में शुद्धिकरण व दूरी का विशेष ध्यान रखा जाता, नवजात शिशु को अलग रखा जाता, उसके संपर्क में आने से पहले स्नान को आवश्यक बनाया गया। इन दिनों में भी निषेध का उसी प्रकार पालन किया जाता था जैसे मृत परिवार में अंतर इतना था यह शिशु से मिलने से पहले आपको शुद्ध होना पड़ता था और वहां मृत परिवार में जाने के बाद।
किसी घर में मृत्यु हो जाने पर भी जो 13 दिवस का निषेध माना जाता है जिसे आम भाषा मे सूतक कहते है, यह भी भारत की प्राचीन व्यवस्था के शुद्धिकरण का ही स्वरूप था। समाज को रोगी व उसके परिवार के संपर्क से दूर रखने हेतु इस व्यवस्था को आरंभ किया गया। अब तो वैज्ञानिक भी मानते है कि 13 से 14 दिवस में समस्त तरह के कीटाणुओं का अंत हो जाता है। महामारियों के बढ़ते प्रकोप को रोकने के लिए इसे एक नियम बना लिया गया।
प्रायः घरों में गाय के गोबर से लेपन के पीछे भी घर के दूषित कीटाणुओं का अंत का ही विचार रहा। यज्ञ शाला को आम के पत्तों से सजाना, घर मे तुलसी का पौधा लगाना, पीपल के व्रक्ष को देवता समान पूजना, गाय को रोटी, मछली को दाना, कौवों को श्राद्ध में भोजन कराना आदि ऐसी कई मान्यताएं है जिनके कारण प्रकृति व मनुष्य में एक सामंजस्य बना हुआ रहा।
जब यह सामंजस्य टूटा, मनुष्य ने अकारण ही पशुओं व प्रकृति का शोषण आरंभ किया, तब प्रकति ने अपना रौद्र रूप आरंभ किया। कोरोना महामारी हो या अन्य कोई आपदा प्रकृति के साथ होने वाले खिलवाड़ ही इसका मुख्य कारण रहा। हमें यह समझना होगा कि हम प्रकृति का रक्षण ही कर सकते है उसे बना नही सकते और जिसे हम बना नही सकते उसे समाप्त करने का हमें कोई अधिकार नही।
कोरोना संक्रमण के पुनः फैलते खतरे को देखते हुए हमें पुनः अपनी जड़ों पर लौटना होगा, हमारे अपने संस्कारों पर लौटना होगा, संस्कृति के मापदंडों पर लौटना होगा, केवल तभी यह प्रकृति हमे क्षमा करने वाली है, प्रकृति के विपरीत जाकर मानव कभी निर्भीक नही रह सकता, किसी न किसी विनाश की आहट उसे सदैव सुनाई देती रहेगी।