तीन संस्कृति
आईपीएल क्रिकेट मैचों के लिए जिसतरह से क्रिकेटरों की नीलामी व डाक व निविदा होती है, मानों किसी हाट-बाज़ार में भेड़-बकरियों के लिए मोल-तौल हो रहे हैं। सबसे दुःखद बात यह है कि क्रिकेट के इस अंदाज़ में जहाँ 100 करोड़ रुपये से ऊपर खर्च करके कई फ्रेंजाइजी ने जितने क्रिकेटरों को ख़रीदा, तो उनमें से अधिकांश विदेशी खिलाड़ी शामिल हैं ! क्या हमारे देश में क्रिकेट खिलाड़ी नहीं हैं ? दरअसल, खिलाड़ी तो काफी हैं यहां, लेकिन पॉलिटिक्स और सट्टेबाजी के फेर में खेल कब खेल बन जाती है, खेल को भी मालूम नहीं होता ? भारतीय क्रिकेट की संस्था BCCI ने आई पी एल में करोड़ों रुपये खर्च कर तो देती है, पर दृष्टिबाधित T-20 वर्ल्डकप चैंपियन टीम की खिलाड़ियों के लिए कुछ नहीं करते ? अगर करते भी हैं, तो मीडिया में आलोचना होने पर, जहाँ आजकल हिटलर की घड़ी की नीलामी हो रही है, तो ऐसे में खिलाड़ियों की नीलामी ‘इंसानियत’ को शर्मसार करती है।
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प्रत्येक घर में बच्चों के मार्गदर्शक उनके अभिभावक होते हैं, तो वहीं विद्यालय में उन बच्चों के मार्गदर्शक शिक्षक होते हैं । शिक्षक अथवा अभिभावक सभी बच्चों के लिए उत्प्रेरक (catalyst) के कार्य करते हैं । बच्चे विद्यालय में मात्र 6 घंटे रहते हैं, परंतु घर पर अपने अभिभावकों व माता, पिता, ताऊ, ताई, चाचा, चाची, दादा, दादी, अथवा नाना, नानी, मामा, मामी इत्यादि के साथ 18 घंटे व्यतीत करते हैं । घर पर 18 घंटे रहने के बावजूद इन बच्चों के द्वारा शिक्षकों की ही सर्वाधिक सुनी जाती है । परंतु हाल के वर्षों में बच्चों में इस तरह के कर्त्तव्य-निर्वहन में कमी आई है, जो कि अभिभावकों के कारण है । चूँकि ये अभिभावक जहाँ रुपयों से डिग्री खरीदकर बच्चों को व्यवसाय आदि में संलग्न कर देते हैं, जिससे बच्चों में सेवा-भावना ख़त्म होती जा रही है, तब यही बच्चे कालान्तर में हमारे लिए मुसीबत का कारण बन जाते हैं । ऐसे अभिभावकों को चाहिए, वे अपने बच्चों को अच्छे शिक्षकों से उत्प्रेरणा दिलाये, क्योंकि अच्छे शिक्षक उत्प्रेरक (catalyst) होते हैं।
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कटिहार जिला, बिहार के मनिहारी के कुछ हिस्से के जमींदार सत्तो बाबू के यहाँ डॉक्टर फूलो यानी फूलो बाबू यानी बलाई चंद मुखर्जी व बीसी मुखोपाध्याय का जन्म मनिहारी में उनके पुत्र के रुप में 19 जुलाई 1899 को हुआ था । डॉक्टरी की पढ़ाई पीएमसीएच, पटना से पूर्ण की, जो कि उस समय कलकत्ता विश्वविद्यालय के अभिन्न अंग थे ! सरकारी चिकित्सक के रूप में पोस्टिंग अज़ीमगंज, भागलपुर में पाई और कई बरस वहाँ बिताए । कभी इसी भागलपुर में ‘देवदास’ वाले शरतचंद्र का बचपन बीता था, शायद लेखन का चस्का इसी के सापेक्ष प्रतिबद्ध हुआ होगा, अतिशयोक्ति नहीं मानी जा सकती ! बांग्ला लेखक होने के नाते कालांतर में कोलकाता बस गए, किन्तु उनकी कहानियों और उपन्यासों, यथा- भुवन शोम, हाटे बज़ारे आदि पर राष्ट्रीय पुरस्कृत फिल्में, तो फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कृत फ़िल्म ‘अर्जुन पंडित’ काफी चर्चित रही, जो कि मनिहारी, साहिबगंज, भागलपुर की क्षेत्रीय कथाओं व घटनाओं से ही जुड़ी रहती थी । सर्च इंजन गूगल और उनके जन्मभूमि के होने के नाते मेरे अन्वेषण के अनुसार, बनफूल ने 600 से अधिक कहानियाँ, 60 से अधिक उपन्यास, 6 से अधिक नाटक तथा असंख्य व अलिपिबद्ध कविताएं तथा अन्य विधाओं में रचनाएँ सृजित की।