होली गेहूं की फसल के आगमन की खुशियां मनाने का पर्व है
ओ३म्
होली का पर्व प्रत्येक वर्ष चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की प्रथम तिथि को मनाया जाता है। एक दिन पूर्व फाल्गुल मास की पूर्णिमा पर होलिका दहन की परम्परा भी लम्बे समय से समाज में चली आ रही है। होली प्राचीन काल में ऋषियों व विद्वानों द्वारा किये जाने वाले महायज्ञ का एक बिगड़ा हुआ रूप प्रतीत होता है। हम जानते हैं कि महाभारत युद्ध के बाद देश में अविद्या की वृद्धि और विद्या का नाश उत्तरोत्तर होता रहा। इस दीर्घावधि में परमात्मा से सृष्टि के आरम्भ में प्राप्त चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद व इनका ज्ञान व मान्यतायें विलुप्त होकर इसके स्थान पर अज्ञान व अन्धविश्वासों ने पैर फैलाये व जमाये जिससे सारे देश व विश्व को अज्ञान के तिमिर ने अन्धकारयुक्त कर दिया। दैवयोग से ईसा की उन्नीसवी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में गुजरात के मौर्वी राज्य में पं0 करशनजी तिवारी जी के घर 12 फरवरी, सन् 1825 को एक बालक मूलशंकर का जन्म हुआ जिसने मूर्तिपूजा के अन्धविश्वास की वास्तविकता जानने एवं मृत्यु पर विजय पाने के लिये गृह त्याग कर धर्म व अधर्म पर अनुसंधान किया और धर्माधर्म विषयक सभी प्रश्नों के समाधान प्राप्त किये। गृहत्याग के बाद मूलशकर ने संन्यास लेकर स्वामी दयानन्द सरस्वती (1825-1883) नाम धारण किया और संसार से अविद्या दूर कर देश, समाज व विश्व को अविद्या से मुक्त करने का संकल्प लेकर कार्य किया। उनके अनुसंधान का एक परिणाम यह भी था कि सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा को परमात्मा ने एक-एक वेद का ज्ञान दिया था। यह ज्ञान ईश्वर, जीव व प्रकृति के सत्य स्वरूप व गुण, कर्म व स्वभाव पर प्रकाश डालने के साथ मनुष्यों को धर्म व अधर्म से परिचित भी कराता है। वेदों में जो विधेय बातें हैं वह सब धर्म और जो निषिद्ध बातें हैं वह अधर्म हैं। ऋषि दयानन्द ने वेद मन्त्रों के संस्कृत व हिन्दी भाषा में अर्थ किये और लोकभाषा हिन्दी में वैदिक मान्यताओं एवं सिद्धान्तों पर आधारित एक अपूर्व धर्म एवं सामाजिक क्रान्ति करने वाले ग्रन्थ ‘‘सत्यार्थप्रकाश” की रचना की। उन्होंने देश व संसार से अविद्या दूर करने के अपने उपाय वा प्रयत्न किये जो आंशिक रूप से सफल हुए। उनके समय में विद्यमान मत-मतान्तरों के असहयोग व हठधर्मिता के कारण विश्व से अविद्या दूर करने का उनका स्वप्न व पुरुषार्थ सफल न हो सका। ऋषि दयानन्द ने वेदों एवं ऋषियों की मान्यताओं के अनुरूप प्रातः व सायं दैनिक अग्निहोत्र का विधान भी सभी आर्य हिन्दुओं के लिये किया है। प्राचीन काल में सामूहिक रूप से जो यज्ञ किये जाते थे वह महायज्ञ कहे जा सकते हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि होली के दिन जो होलिका जलाई जाती है वह उसी महायज्ञ का बिगड़ा हुआ रूप है। इस दिन सभी हिन्दुओं को अपने घरों में अग्निहोत्र करने चाहिये और सभी लोगों को स्थान-स्थान पर सामूहिक महायज्ञों का अनुष्ठान आर्यसमाज के पुरोहितों से कराना चाहिये जिससे हमारा सामाजिक एवं वायुमण्डलीय वातावरण प्रदुषण एवं विकारों से मुक्त हो। यज्ञ में वेदमन्त्रोच्चार से ईश्वर स्तुति, प्रार्थना व उपासना भी होती है। यही होली जलाने का प्रयोजन तर्क व युक्ति पर आधारित प्रतीत होता है।
होली का पर्व ऋतु परिवर्तन का पर्व भी है। हमारे देश में तीन मुख्य ऋतुयें शीत, ग्रीष्म एवं वर्षा हैं। शीत ऋतु में लोग सर्दी से कष्टों का अनुभव करते हैं। वृद्ध लोगों के लिये तो यह जान लेवा भी होती है। अति वृद्ध अनेक लोगों का वियोग भी अतिशीतकाल में होता है। शीत ऋतु के कमजोर पड़ने व ग्रीष्म ऋतु के आरम्भ की संधि फाल्गुन मास की पूर्णिमा और चैत्र माह के कृष्ण पक्ष के प्रथम दिवस को यह पर्व मनाया जाता है। इस समय शीत ऋतु प्रायः समाप्त हो चुकी होती है और ग्रीष्म ऋतु का आरम्भ हो रहा व हो गया होता है। वृक्ष व वनस्पतियां भी अपने पुराने आवरण, पत्तों वा वस्त्रों को छोड़कर नये पत्तों को धारण करती हैं। फूलों से बाग बगीचे भरे हुए होते हैं। सर्वत्र सुगन्ध का प्रसार अनुभव होता है और बाग बगीचों को देखकर स्वर्गिक आनन्द की अनुभूति होती है। ऐसा लगता है कि ईश्वर अपनी कला का नाना प्रकार के रंग बिरंगे फूलों के माध्यम से दर्शन करा रहा है। यह सत्य भी है। रचना को देखकर रचयिता का ज्ञान होता है। वस्तुतः इन रंग बिरंगे फूलों व इनमें सुगन्ध को अनुभव करके हमें इनके उत्पत्तिकर्ता व पालक परमेश्वर का ज्ञान होता है। फूल तो गुण है परन्तु इन गुणों रंग व रूप आदि का गुणी हमें वह परमात्मा प्रतीत होता है। ईश्वर की रचना को देख कर किसी भी सात्विक मनुष्य का सिर ईश्वर की अद्भुद रचना व कला के सम्मुख झुक जाता है। हम समझते हैं कि होली व इसके आसपास के दिनों में मनुष्यों को विविध प्रकार के वृक्षों एवं फूलों के बगीचों में घूमना चाहिये और ईश्वर की रचना को देखकर उसके सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी स्वरूप का ध्यान करना चाहिये। फूलों से प्रेरणा लेकर स्वयं के जीवन को भी सुन्दर, रंग-बिरंगा एवं सुगन्ध से युक्त बनाने का संकल्प लेना चाहिये। इसके लिये मनुष्य को सत्यार्थप्रकाश, उपनिषद, दर्शन, वेद, रामायण, महाभारत, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों का अध्ययन करना चाहिये। इनके अध्ययन एवं आचरण से हमारा जीवन सफल होता है।
मनुष्य का शरीर अन्नमय है। गेहूं सभी प्रकार के अन्नों का प्रतीक प्रमुख अन्न है। गेहूं के आटे से अनेक प्रकार के व्यंजन रोटी, पूरी, पराठा तथा मैदा व सूजी से अनेक पदार्थ बनते हैं। यह अन्न गेहूं व जौं भी होली के अवसर पर हमारे खेतों में बनकर तैयार हो जाता है। गेहूं की बालियों में जो गेहूं के दाने होते हैं उन्हें होला कहा जाता है। इसी नाम का कुछ कुछ विकृत रूप होली बना है। किसी गेहूं व अन्य अन्नों को उत्पन्न करने में किसान को खेतों की जुताई, बुआई, उसमें खाद डालना, जल से सिंचाई करना, निराई व गुडाई करना, फसल की पशुओं से रक्षा करना, कीटों आदि से भी उसे बचाना, पक जाने पर कटाई करना और फिर उसमें से अन्न के दानों को निकालना और उसमें से विजातीय पदार्थों को पृथक करना आदि अनेक काम करने पड़ते हैं। किसान न केवल अन्न से अपने व परिवार के शरीरों का पोषण करते हैं अपितु देश के अन्य सभी लोगों को भी भोजन कराते हैं। वस्तुतः राजनीति व स्वार्थ से दूर ऐसे कृषक ही देश के अन्नदाता है। उनका समाज में अति उच्च स्थान है। स्वाभाविक है जब किसान की फसल तैयार हो गई है तो उसमें प्रसन्नता, उमंग एवं सन्तोष रूपी सुख का भाव होता है। वह इस प्रसन्नता की अभिव्यक्ति ईश्वर को इस फसल के दानों-होलाओं से यज्ञ करके करता है। कालान्तर में यह घटना प्रमुख रूप से नवसस्येष्टि वा होली के पर्व से जुड़ गई है। इसी का कुछ बिगड़ा रूप होली पर्व पर लकड़ियों को एकत्र कर उन्हें रात्रि में जलाने को दर्शाता है। यदि इसी कार्य को दिन में 11-12 बजे या सायं 3-5 बजे के बीच किया जाया करे और इसे वैदिक महायज्ञ का रूप दिया जाये तो यह वर्तमान परिस्थितियों में अधिक सार्थक हो सकता है।
होली को लोग अपने अपने तरीकों से मनाते हैं। इसे आमोद प्रमोद का पर्व बना दिया गया है। शालीनता और मर्यादा में यदि कोई काम किया जाये तो वह बुरा नहीं होता। हम जहां रहते हैं वहां लोग होली मनाते हैं। आर्यसमाजी अल्प एवं हिन्दू बन्धु अधिक संख्या में हैं। वह होली को परम्परानुसार एक दूसरे के चेहरों पर रंगों को लगाकर मनाते हैं। हमने परिवारों व गली मुहल्लों में लोगों को इस पर्व को बहुत पवित्रता से मनाते हुए भी देखा है। अतः यदि मर्यादा में रहकर आमोद प्रमोद किया जाये तो वर्तमान आधुनिक काल में इसे किया व जारी रखा जा सकता है। हम अनुमान करते हैं आर्यसमाज में संन्यासी व वृद्ध विद्वानों की संख्या तो कुछ हजार ही हो सकती है अतः शेष बन्धुओं को अपने सहकर्मियों व पड़ोसियों के साथ इस पर्व को पूरी भावना व प्रेम से मनाना चाहिये जिससे सम्बन्धों की मधुरता बनी रहे और हम समय-समय पर उन्हें अपने सिद्धान्तों, मान्यताओं व विचारधारा का परिचय कराते रहें।
होली का पर्व समस्त मानव समाज मुख्य सनातन वैदिक धर्म को मानने वाले बन्धु व परिवार मिलकर मनाते हैं। इससे सामाजिक एकता व सामाजिक सम्बन्धों को बल मिलता है और अपने मित्रों तथा पड़ोसियों आदि से सम्बन्ध मधुर व सुदृण होते हैं। होली के अवसर सब को अपने मित्रों व पड़ोसियों से मिलकर उन्हें शुभकामनायें देनी चाहियें, सामूहिक प्रीतिभोज वा मिष्ठान्न आदि के सेवन का आयोजन करना चाहिये और इस दिवस पर भजन व सत्संग आदि आयोजित कर इस पर्व को पूरे उत्वाह से मनाना चाहिये। इससे हमारा समाज सृदण होगा। हम इस अवसर पर सामूहिक आयोजन सभा आदि करके अपने धर्म व संस्कृति की स्थिति व इसकी रक्षा पर भी विचार कर सकते हैं। अन्धविश्वासों व पाखण्डों को छोड़ने व दूर करने तथा सत्य परम्पराओं को अपनाने पर भी विचार व निर्णय ले सकते हैं। अतः देश, काल व परिस्थितियों के अनुसार इस पर्व को मनाना उचित है जिससे हमारा देश व समाज सुदृण बने, धर्म व संस्कृति सुरक्षित रहे। आगामी 28 व 29 मार्च, 2021 को होली के अवसर पर सभी बन्धुओं को हार्दिक शुभकामनायें। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य