मेरी उदासी का सबब
मेरी उदासी का सबब
मैं रोज देखता हूँ
स्कूल के प्रांगण से नाले के पार
टैंटों के आस – पास खेलते
नंग – धड़ंग मैले – कुचैले बच्चे
और फटी मैली साड़ियों में लिपटी औरतें
आपस में झगड़ती – उलझती गालियाँ बकती
मर्दों को देखता हूँ रोज
नये – नये रूप धरकर कंधे पर बैग लटकाए
कभी ज्योतिषी तो कभी हकीम के रूप में टैंटों से निकलते
फिर मिलता हूँ बाजार में भी
उन नंग – धड़ंग मैले – कुचैले बच्चों से
जब वे मांग रहे होते हैं भीख
हर रोज किसी नयी तरकीब के साथ
शायद वे जानते हैं धंधे का हुनर
तकनीकी तौर पर
बिडम्बना है यह कि
पेट तक ही सीमित हो गई है उनकी दुनिया
वे नहीं जानते सामने के मेरे स्कूल में
एक बच्चे की कितनी फीस है
वे यह भी नहीं जानते कि
स्विस बैंक में किसके खाते में कितना पैसा है
वे नहीं जानते कि देश को आजाद हुए कितने वर्ष हो गये हैं
वे सिर्फ जानते हैं पेट को कितनी रोटियां चाहिए
वे जानते हैं तो सिर्फ
अपने धंधे की टेक्नीकल बारीकियां
जिनसे कुछ रोटियां ईजाद हो जाती हैं
मैं रोज उन्हें देखता हूँ और रोज उदास हो जाता हूँ
स्कूल के पास ,नाले के पार
स्कूल से दूर इन बच्चों को
क्योंकि ………
मैं इन के लिए कुछ नहीं कर पाता हूँ …..||