पानी
“रधवा के माई! ओलावृष्टि और बेमौसम की बरसात से सारी फसल खराब हो गई है। क्यों न शहर चलें? दिहाड़ी मज़दूरी मिल जाएगी। साथी ने रहने की जगह खोज रखी है। बच्चों को भूखा कैसे रखें?”
“ठीके है रधवा के बापू! और कुच्छो नहीं सूझ रहा है?”
दोपहर होते-होते सीमित गृहस्थी समेटकर पास के शहर जा पहुँचे। अंधियारा कमरा एक छोटी सी बस्ती में, धूल और गंदगी से भरा हुआ; एक कोने में सामान जमाया, बेटे को कहा कि खाली डिब्बों में कुछ पानी भर लाए, ताकि कमरा धुल सके।
“माँ! इतने सारे डिब्बों में पानी मैं अकेला कैसे ला सकूँगा?”
“तू चल बेटा! तेरी बहन को पीछे से भेजती हूँ, अभी मेरी मदद कर रही है। झाड़ू लगाकर धोने से ही कमरा रात में सोने योग्य होगा।”
वह नल पर गया, सप्लाई का पानी जा चुका था। पता लगा, आधा किलोमीटर दूरी पर एक चापाकल है।
“बच्चे! अगर जरूरी हो चापाकल से ले आओ, नहीं तो शाम को पानी आता है।”किसी ने सलाह दी।
उसने वापस जाकर माँ को बताया और चल पड़ा। रास्ते में नजर एक वाटर पार्क पर पड़ी; एक फव्वारे से पानी तेजी से ऊपर जाकर वापस गिर रहा था। गिरते पानी में कुछ लोग उछल कूद मचा कर नहा रहे थे। ऐसी जगह सिर्फ टीवी पर देखी थी।
गार्ड से पूछा, “चाचा! क्या यहाँ से पानी ले सकता हूँ?”
“नहीं बच्चे! यह मनोरंजन की जगह है, पानी लेने की नहीं?”
“मुझे आधा किलोमीटर पैदल चलना पड़ेगा। मुझे पानी लेने दीजिए।”
“अंदर जाने की फीस ढाई सौ है, दे सकते हो? यहाँ चारों ओर सीसीटीवी कैमरे लगे हैं, गलती होते ही मेरी नौकरी चली जाएगी।”
“जब बस्ती के नल में पानी नहीं आ रहा है, तो यहाँ इतना सारा पानी कैसे आ रहा है?”
“बच्चे! ये अमीर लोगों की जगह है? यहाँ पानी जमा करके रखा जाता है।”
“चाचा! क्या भगवान भी अमीर-गरीब का फर्क करके पानी देते हैं? हमारी बस्ती में नल सूखा है और अमीरों के नल से पानी इतनी तेजी से आ रहा है, क्यों?”
तब तक माँ-बहन पीछे से पहुँच गईं, उसे कानों से घसीटते हुए घर की ओर ले गईं, पर बच्चे का दिलो-दिमाग अभी भी अपने प्रश्न का उत्तर ढूँढने में लगा हुआ था!
— नीना सिन्हा