कहीं, कोई है क्या जगदीश्वर?
नारी है देवी, नर परमेश्वर।
सबका अपना-अपना ईश्वर।
पैदल चलकर भूख से मरते,
कहीं, कोई है क्या जगदीश्वर?
सच क्या है? और झूठ है क्या?
जग जीवन का आधार है क्या?
जन्म हुआ है तो मृत्यु भी होगी,
मृत्यु के बाद, होता है क्या?
कुछ हैं सनातन प्रश्न यहाँ पर।
भारी पड़ते हैं, प्रश्न जहाँ पर।
करणीय और अकरणीय क्या है?
उत्तर मिलेंगे, मित्र कहाँ पर?
अनादिकाल से प्रश्न उछलते।
तरह-तरह के उत्तर छलते।
जन्नत के दिव्य स्वप्न दिखाकर,
धर्म के नाम पर, पेट हैं पलते।
वेदों ने भी चर्चा बहुत की।
सांख्य, योग, न्याय बात की।
वैशैषिक, मीमांसा ने भी,
वेदान्त ने दर्शन की बात की।
नहीं सत्य फिर भी मिल पाया।
जैन, बुद्ध निज राग सुनाया।
जब तक जीओ, सुख से जीओ,
चार्वाक का दर्शन आया।
युग यत्न बाद ना उत्तर आया।
विचार बाढ़ ने, हमें डुबाया।
ईश्वर है, यह सिद्ध न हो सका,
नहीं है, कौन सिद्ध कर पाया?
दर्शन, चिन्तन सब से ऊबे।
मिटे राज्य और मिट गए सूबे।
धर्म के नाम, महाभारत करके,
पूरे किए, कुछ ने मंसूबे।
सोच छोड़ कुछ काम करो अब।
भाग्य छोड़, कर्तव्य वरो अब।
सब हैं संगी, सब ही साथी,
अकर्मण्य हो, जिन्दा न मरो अब।
ईश्वर की ना करो प्रतीक्षा।
खुद में पैदा करो तितीक्षा।
जग-जीवन हित करो समर्पण,
नहीं देनी कोई दिव्य परीक्षा।