रंगों में है प्यार कि होली आई रे
होली का त्योहार समस्त भारत वर्ष में ही नहीं बल्कि विदेशों में भी धूमधाम एवं श्रद्धा से मनाया जाता है। रंगों की मर्यादा में उत्साह के नज़ारे संतरंगी परिभाषा छोड़ते हैं। हर्ष, उमंग, तरंग, उत्साह, भाईचारे, देश-भक्ति तथा रंग रूप, जाति-पाँति से ऊपर उठकर यह त्योहार मनाया जाता है।
यह त्योहार फाल्गुन की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस दिन सभी स्त्री पुरूष तथा बच्चे, वृद्ध होली का पूजन करते हैं। पूजन करने के बाद होलिका को जलाया जाता है। इस दिन व्रत भी रखे जाते हैं। इस दिन हनूमान जी, भैरों जी आदि देवताओं की भी पूजा की जाती है।
जिन स्थानों पर भगवान कृष्ण की जीवनशैली से सबंधित मन्दिर बने हुए हैं वहाँ होली खूब खेली जाती है। जिन स्थानों पर भगवान कृष्ण ने लीलाएं की वे तीर्थ स्थान बन गए। होली इसी इतिहास से जुड़ी हुई है। वैसे होली का मंगलाचरण बसंत में हो जाता है। व्रज दिव्यता से भर जाता है। जगह-जगह गुलाल की होली आरम्भ होती है। धरती का कण-कण होलीमय हो जाता है।
श्री कृष्ण की लीला स्थली व्रज की होली का नज़ारा ही कुछ और होता है। ब्रज के बरसाना, मथुरा, वृन्दावन तथा नंदगाव की होली दिव्यता रास लीला, हास-विलास श्री कृष्ण-गोपियों, राधा की रास लीला तथा नृत्य, भंगड़े, भजन-संगीत का प्रकाश झलकता है।
अगर ज़िंदगी में, प्रकृति में भव्य रंगों का अस्तित्व न होता तो शायद सारी दुनियां, सारी ज़िंदगी निरर्थक होती। अलग अलग रंगों की सुन्दर दृश्यावली ही प्राणियों के हृदय-दिमाग़ तथा जिस्म के ऊपर गहरा प्रभाव छोड़ती है। रंगों में मोह, प्यार, स्नेह होता है। रंगों में ही भगवान बसते हैं। रंगों में ही दिव्यता होती है। रंग ही सुन्दरता के अर्थ बताते हुए जन्नत के रास्ते खोजते हैं। सुन्दर दृश्य ही जन्नत का पर्याय है। रंगों का प्रभाव ज़िंदगी के प्रत्येक कार्य पर पड़ता है, जिसे के प्रभाव परिणामपूर्ण होते हैं। रंगों की दिव्यता ही प्राकृति का नाम है। रंगों के समूह को ही कुदरत कहा जाता है। आंखों में उतरते रंगों के प्रतिबिंब दिमाग़, हृदय को ताज़गी देते हैं, शान्ति प्रदान करते हैं। रंग तो कुरूप को भी स्वरूप बख़्श देता है। खूबसूरती का चिन्ह् ही रंगों की परिभाषा है। दुनियां में जितनी भी खूबसूरत वस्तुएं हैं सब रंगों की अपेक्षा ही तो हैं। रंगों से ही सारा संसार सुन्दर लगता है, अच्छा लगता है। चाहे रंग संजीव हो या निर्जीव हों। रंग आकर्षण पैदा करते हैं। रंग प्यार मुहोब्बत उत्पन्न करते हैं। रंग मेल-मिलाप बढ़ाते हैं। प्रत्येक देश रंगों की पहचान से ही जाना जाता है। रंग देश का नेतृत्व करते हैं। रंग न होते तो ज़िंदगी के ढंग भी न होते। ह्नदय मस्तिष्क को रंग ही जंचते हैं जिस के कारण मनुष्य अपनी अंदरूनी-बाहरी शक्ति को तौलता है। रंगों से ही ‘तू’ और ‘मैं’ का अस्तित्व है। रंगों से ही प्यार पनपता है। रंगों से ही उपलब्धियां, उपाधियां हैं।
होली के त्योहार के साथ अनेक ऐतिहासिक, मिथ्यहासिक, प्रेरक प्रसंग, दंत कथाएं भी जुड़ी हुई हैं। विश्वास मत है कि एक समय की बात है कि भारतवर्ष में एक हिरण्यकाशिपु नाम का राक्षस राज्य करता था। उसका एक पुत्र प्रहलाद था जो भगवान में अथाह विश्वास रखता था। उसका पिता भगवान को नहीं मानता था वह अपने आप को स्वंय भगवान समझता था। वह अपने राज्य में भगवान का नाम नहीं अपना नाम जपने को कहता। परन्तु प्रहलाद भगवान की कृपा में ही विश्वास रखता था। वह दिन रात भगवान (ईश्वर) की पूजा करता परन्तु उसके पिता को यह अच्छा न लगता। उसने प्रहलाद को भगवान का नाम जपने से दूर किया। परन्तु प्रहलाद टस से मस न हुआ तो उसने प्रहलाद को पहाड़ से गिरा दिया, सर्पों के कमरे में बंद किया, हाथी से भी मरवाने की कोशिश की परन्तु प्रहलाद का कुछ न बिगाड़ सका। अन्त में हिरण्यकशिपु बोला कि मेरी बहन होलिका को बुलाओ और उसे कहो कि प्रहलाद के अग्नि में लेकर बैठ जाए जिससे प्रहलाद तो जलकर मर जाएगा और होलिका का अग्नि कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती, क्योंकि होलिका को यह वरदान था कि उसे अग्नि नहीं जला सकती। अतः होलिका को बुलाया गया। उसने अपने भाई की बात मानी और अग्नि के बीच होलिका प्रहलाद को लेकर बैठ गई, प्रहलाद भगवान को याद करता रहा। आखि़र अग्नि ने होलिका को भस्म कर दिया और प्रहलाद का बाल बांका न हुआ। प्रहलाद जीवित रहा। उसी दिन से यह होलिका जलाई जाती है। भगवान अपने भक्तों की हर हाल रक्षा करता है।
होली के दिन ढोल, नगारे, नृत्य, भंगड़े डाले जाते हैं। दुश्मन भी मित्र बन जाते हैं। रंगों की बरसात होती है। हर्षता घर-घर नाचती है। इस दिन पूजा के बाद जल रोली (हल्दी चूने से बनी हुई लाल रंग की बुकती जिसका तिलक लगाया जाता है), मौली, चावल, फूल, प्रसाद, गुलाल, चंदन, नारियल आदि चढ़ाए जाते हैं। दीपक से आरती करके दंडवत होना शुभ माना जाता है। फिर सब के रोेली से तिलक लगाते हैं। तरह-तरह की मर्यादा से होली की पूजा की जाती है। होली में अग्नि लगाते ही उस डंडे या लकड़ी को बाहर निकालल देते हैं। इस लकड़ी को भस्त प्रहलाद माना जाता है।
इस दिन अच्छे-अच्छे पकवान, मिष्ठान, भोजन, नमकीन, फल आदि का सेवन किया जाता है। थोड़ा-थोड़ा पकवान बह्मणी को भी दिया जाता है।
होली का त्योहार श्री आनंदपुर साहिब (पंजाब) में भी धूमधाम एवं श्रद्धा से मनाया जाता है। खेल-क्रिपाएं, घोड़ क्रियाएं तथा भारी मेला लगता है। लाखों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। कई राजनीतिक पार्टीयों के मंच भी लगते हैं। कथा-कीर्तन, शब्द गायन तथा भाषण भी होते हैं। सारा आनंदपुर होली से रंग जाता है। ख़ालसे का दिव्य रूप देखने को मिलता है।
फिर भी इस दिन कुछ लोग नशा करते हैं, जुआ खेलते हैं, फिल्मी लचर गाने लगाते हैं जो बुरी बात है। समाज को ग़लत दिशा मिलती है। फिर भी होली का त्यौहार रंगों के माध्यम से मानवता का संदेश देता है।
— बलविन्दर ‘बालम’