वैदिक धर्म के अनुसार आचरण बनाकर जीवन को सफल बनायें
ओ३म्
महाभारत के बाद वैदिक धर्म का सत्यस्वरूप विलुप्त हो गया था और इसमें अनेक अन्धविश्वास, पाखण्ड एवं मिथ्या परम्परायें सम्मिलित हो गई थी जिससे आर्य जाति का नानाविध पतन व पराभव हुआ। ऋषि दयानन्द ने वेदों का पुनरुद्धार करने सहित वेद प्रचार करते हुए आर्यसमाज की स्थापना कर वैदिक धर्म को देश देशान्तर में प्रचारित व प्रसारित करने का अभिनन्दनीय कार्य किया। इसके लिए हम ऋषि दयानन्द, उनके गुरु स्वामी विरजानन्द, स्वामी दयानन्द के संन्यास गुरु स्वामी पूर्णानन्द जी, स्वामी जी के योग-गुरुओं सहित स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, भाई परमानन्द सहित उनके अब तक हुए सभी अनुयायियों को सादर नमन करते हैं। ऋषि दयानन्द को सन् 1839 की शिवरात्रि को बोध हुआ था, तब लोगों के पास सच्चे शिव के सत्यस्वरूप्स तथा उसकी प्राप्ति कैसे होती है, आदि विषयों का ज्ञान नहीं था। मृत्यु क्यों होती है, मृत्यु पर क्या विजय पाई जा सकती है या नहीं, पाई जा सकती है तो कैसे और यदि नहीं पाई जा सकती है तो क्यों, इन प्रश्नों के उत्तर भी किसी के पास नहीं थे। इन्हीं प्रश्नों के उत्तर खोजने को अपने जीवन का उद्देश्य बनाकर ऋषि दयानन्द ने अपने माता-पिता व परिवार सहित अपनी जन्म भूमि टंकारा का त्याग किया था और अहर्निश अपने उद्देश्य के प्रति सजग रहकर उसे पूरा करने के लिये तत्पर व गतिशील रहे थे। ऋषि के तप व प्रार्थना को स्वीकार कर ईश्वर ने उन्हें न केवल इन प्रश्नों के उत्तर व समाधान प्रदान किये अपितु इस सृष्टि के अधिकांश अन्य रहस्यों का अनावरण भी किया था। ऋषि का सौभाग्य था कि उन्हें स्वामी विरजानन्द जी जैसे योग्य व अपूर्व आचार्य मिले थे। ऋषि दयानन्द के गुरु विरजानन्द जी को गुरु दक्षिणा में अपने शिष्य से किसी भौतिक पदार्थ की अपेक्षा नहीं थी अपितु वह चाहते थे कि ऋषि दयानन्द वेदज्ञान को जन जन तक पहंुचायें, इसका परामर्श व प्रेरणा ही उन्होंने दयानन्द जी को की थी। ऋषि दयानन्द ने जिस ज्ञान प्राप्ति के लिए अपने माता-पिता व घर को छोड़ कर वन, उपवन, पर्वत व स्थान-स्थान की खाक छानी थी, वह उससे कहीं अधिक ज्ञान प्राप्त कर चुके थे। ईश्वर का साक्षात्कार भी उन्होंने किया था। कोई मनुष्य अपने जीवन में वेदों का अधिकतम जो ज्ञान प्राप्त कर सकता है, वह ऋषि दयानन्द प्राप्त कर चुके थे। ऋषि के प्रयत्नों से देश व संसार को पंचमहायज्ञविधि, सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, ऋग्वेद-यजुर्वेदभाष्य, आर्याभिविनय, व्यवहारभानु, गोकरुणानिधि, पूना-प्रवचन आदि ज्ञान-सम्पदा प्राप्त हुई। हमारा सौभाग्य है कि हम ईश्वर, जीवात्मा, चराचर जगत, मनुष्य के कर्तव्य, जीवात्मा का लक्ष्य व उसकी प्राप्ति के साधनों आदि को ऋषि प्रदत्त सत्य-ज्ञान के अनुरूप जानते हंै। हम आश्वस्त हैं कि मृत्यु के बाद हमारा पुनर्जन्म होगा। हम मोक्ष के लिये भी पुरुषार्थ कर सकते हैं। किसी भी ज्ञान, ईश्वरोपासक एवं पुरुषार्थी मनुष्य का मोक्ष हो सकता है और यदि नहीं होगा तो उसका पुनर्जन्म अवश्य श्रेष्ठ व उत्तम होगा। हम पुनर्जन्म लेकर मानव व देव बनेंगे और भावी जन्मों में मोक्षगामी बनकर व ईश्वर का साक्षात्कार कर मोक्ष भी प्राप्त कर सकते हैं। यदि मोक्ष प्राप्त न भी कर सके तो हम सच्चे मनुष्य व देव बनकर तो मनुष्यता व प्राणीमात्र का कल्याण करने का कार्य कर ही सकते हैं जैसा कि ऋषि दयानन्द व उनके अनेक प्रमुख अनुयायियों ने किया है।
ऋषि दयानन्द ने बोध को प्राप्त होने के बाद सच्चे शिव व मृत्यु की औषधि की खोज की। वेदाध्ययन, वेदाचरण, ईश्वरोपासना, योग, ध्यान, समाधि, सत्याचरण, अपरिग्रह, सात्विक जीवन, परोपकार के कार्य आदि को धारण किया। उन्होंने संसार से अविद्या को दूर करने और विद्या का प्रकाश करने के लिये वेद प्रचार किया। असत्य मान्यताओं का खण्डन तथा सत्य मान्यताओं की स्थापना के लिये जीवन का एक-एक पल व्यतीत किया। मनुष्यों को मनुष्य के कर्तव्यों से परिचित कराया। पंच-महायज्ञों के विधान से परिचित कराया व उनकी विधि बनाकर हमें प्रदान की। उन्होंने ईश्वरोपासना, पंचमहायज्ञों तथा परोपकार व दान आदि के कामों को तर्क व युक्तियों से पुष्ट किया। बताया कि जो मनुष्य ईश्वरोपासना नहीं करता वह ईश्वर के उपकारों के लिए उसका धन्यवाद न करने के कारण कृतघ्न होता है। जो अग्निहोत्र यज्ञ नहीं करता वह वायु, जल, पृथिवी, आकाश आदि में प्रदुषण करने के कारण ईश्वर व अन्य देशवासियों का अपराधी होता है। यज्ञ न करने से मनुष्य को पाप लगता है जिसका परिणाम दुःख होता है। माता-पिता के भी सन्तानों पर असंख्य उपकार होते हैं। उनकी आज्ञा पालन, वृद्धावस्था में उनका पालन व पोषण तथा उनकी आत्माओं को सन्तुष्ट रखना सभी सन्तानों का कर्तव्य व धर्म होता है। जो ऐसा करते हैं वह प्रशंसनीय हैं और जो नहीं करते वह निन्दनीय हैं। अतिथि विद्वानों को कहते हैं जो अपने किसी स्वार्थ की पूर्ति के लिये नहीं अपितु अपने कर्तव्य, समाज तथा देश का हित करने के लिये स्थान-स्थान पर विचरण करके अविद्या का नाश, विद्या की वृद्धि और लोगों के दुःखों का हरण करते हैं। ऐसे अतिथियों की मन, वचन व कर्म से सेवा करना समाज के सभी मनुष्यों का कर्तव्य होता है। ऐसा करने से मनुष्य ज्ञान व सामाजिक दृष्टि से उन्नति करता है। देश व समाज उन्नत व सुदृण होते हैं। ऋषि दयानन्द के जीवन में यह सभी गुण पाये जाते थे। इसी प्रकार से परमात्मा के बनाये पशु व पक्षियों सहित सभी प्रकार के प्राणियों व कीट-पतंगों के प्रति भी दया व करूणा का भाव रखते हुए उनके पोषण व जीवनयापन में सभी मनुष्यों को सहायक बनना चाहिये। ऐसा करके ही हम मनुष्य कहलाने के अधिकारी होते हैं।
ऋषि दयानन्द के समय में हमारा समाज अनेक प्रकार की अन्धविश्वासों एवं कुरीतियों से ग्रस्त था। ऋषि ने सभी सामाजिक कुरीतियों व परम्पराओं का तर्क, युक्ति सहित वेद के प्रमाणों से खण्डन किया। अशिक्षा को उन्होंने मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु बताया। उन्होंने शिक्षा को मनुष्य का अधिकार व प्रजा को वैदिक शिक्षा प्रदान कराना राजा का कर्तव्य बताया। ऋषि के अनुसार वह माता-पिता दण्डनीय होने चाहियें जो अपने बच्चों को राज्य की ओर से संचालित निःशुल्क गुरुकुलों व पाठशालाओं में पढ़ने के लिये नहीं भेजते। ऋषि दयानन्द ने ब्रह्मचर्य व्रत के पालन की महिमा को भी रेखांकित किया। उन्होंने ब्रह्मचर्य से ब्रह्म प्राप्ति का मार्ग दिखाया। ब्रह्मचर्य विषयक सभी भ्रमों को उन्होंने दूर किया। एक गृहस्थी जो संयम एवं नियमों का पालन करते हुए जीवन व्यतीत करता है, वह भी ब्रह्मचारी होता है। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन व आचरण से शिक्षा दी कि प्रत्येक मनुष्य को प्रातः ब्रह्म़्-मुहुर्त अर्थात् 4.00 बजे जाग जाना चाहिये। वेद मन्त्रों से ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिये। शौच आदि से निवृत होकर सन्ध्या एवं यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिये। प्रतिदिन स्वाध्याय करना चाहिये। सात्विक व शाकाहारी भोजन करना चाहिये। शरीर में विकार उत्पन्न करने वाले पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिये। दुग्ध, घृत, मक्खन, फल सहित शुद्ध अन्न का सेवन करना चाहिये। आलस्य का त्याग कर पुरुषार्थी होना चाहिये। महत्वाकांक्षी न बन कर देश व समाज के हितों का ध्यान रखते हुए जीवनयापन करना चाहिये। मनुष्य को ईश्वरभक्त एवं देशभक्त होना चाहिये। उसे किसी प्रकार का भेदभाव, अन्याय व शोषण किसी के प्रति नहीं करना चाहिये। पिछड़े, दलितों व पात्र लोगों को शिक्षा व सहायता देकर ऊपर उठाना चाहिये। सबको सदाचार व वेद की मान्यताओं से परिचित कराना चाहिये और अविद्या का खण्डन निर्भीकता से करना चाहिये। समाज में यदि अविद्या होगी तो इससे सभी को दुःख प्राप्त होता है। ऋषि दयानन्द ने यह भी बताया कि वेद से इतर जितने भी मत-मतान्तर हैं उन सबमें अविद्या विद्यमान है। यह अविद्या दूर होनी चाहिये। इसके लिये उन्होंने न केवल सत्यार्थप्रकाश के उत्तरार्ध के चार समुल्लास लिखे अपितु अपने जीवन में उपदेश व व्याख्यानों के माध्यम से प्रचार करते हुए भी मत-मतान्तरों की अविद्या व असत्य का पुरजोर खण्डन किया। ऋषि दयानन्द ने हमें इतना कुछ दिया है कि हम उसे सम्भाल पाने में असमर्थ हैं। हम पुरुषार्थ करें तो वेदों के विद्वान व ऋषि तक बन सकते हैं। इसके लिये ऋषि दयानन्द ने हमें सभी साधनों से परिचित कराया है व सभी साधन उपलब्ध कराये हैं।
ऋषि दयानन्द के समय में हमारा देश अंग्रेजों का गुलाम था। अंग्रेजों से पूर्व देश के कुछ भाग मुस्लिम शासकों के पराधीन रहे। इन सभी ने हमारे पूर्वजों पर अमानवीय अनेक जघन्य अपराध किये। हमें इनसे शिक्षा लेकर अपनी उन सभी बुराईयों को दूर करना है जिससे हम पुनः पराधीन न हों। पराधीनता का कारण अविद्याजनित मत-मतान्तर, सामाजिक भेदभाव वा जन्मना जातिवाद, मिथ्या परम्परायें एवं वेदाचरण के विपरीत आचरण करना था। शोक है कि यह सब कारण आज भी हिन्दू व आर्यों में विद्यमान हैं। ऋषि दयानन्द ने ही देश की आजादी का मार्ग सत्यार्थप्रकाश व आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों में सुझाया था। आजादी प्राप्त होने में ऋषि दयानन्द के अनुयायियों का सबसे अधिक योगदान है। यदि ऋषि दयानन्द ने आजादी की प्रेरणा न की होती और आर्यसमाज व उसके अनुयायियों ने कर्तव्य भावना से आजादी में सक्रिय भाग न लिया होता, तो हमारा अनुमान है कि शायद हम आजाद न हुए होते। इस अवसर पर हमें पं0 श्यामजी कृष्ण वम्र्मा, स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती, लाला लाजपतराय, भाई परमानन्द, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, शहीद भगत सिंह के देश को आजाद कराने के लिए किए गए कार्यों व बलिदानों को भी स्मरण करना चाहिये। हमें स्मरण है कि जब शहीद भगत सिंह लाहौर से लाला लाजपतराय की हत्या का बदला लेकर कलकत्ता पहुंचे थे तो वहां उन्हें आर्यसमाज मन्दिर में आश्रय मिला था। देश को आजादी की प्रेरणा कर आजादी दिलाने वाले महर्षि दयानन्द एवं आर्यसमाज के योगदान को भी हमें स्मरण करना चाहिये।
सारा संसार ऋषि दयानन्द द्वारा प्रदत्त सत्य ज्ञान के लिये उनका ऋणी है। देश चाहे भी तो उनके ऋण से उऋण नहीं हो सकता। उनके बताये मार्ग का अनुकरण व अनुसरण कल्याण का मार्ग है और मत-मतान्तरों की शिक्षाओं में निमग्न रहना मनुष्य को ईश्वर को प्राप्त न कराकर प्रवृत्ति व लोभ के मार्ग पर ले जाता है जहां कर्म फल भोग सुख-दुःखादि के अतिरिक्त कुछ नहीं है। पुनर्जन्म भी इससे सुधरता नहीं अपितु हमारी दृष्टि में बिगड़ता ही है। जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है उसे मांसाहार, मदिरापान, नशा, घूम्रपान, अधिक भोजन तथा धन सम्पत्ति का संग्रह वा परिग्रह छोड़कर अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं को पूरा करने में ही यथोचित पुरुषार्थ करना चाहिये। ऋषि दयानन्द ने वेद व वैदिक धर्म का पुनरुद्धार किया। वेद व वैदिक धर्म सर्वांगीण धर्म एवं आचार शास्त्र है। इसकी शरण में जाने व वेदों को अपनाने से ही मनुष्य जीवन का कल्याण होता है तथा मनुष्य धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष का अधिकारी बनता है। ऋषि दयानन्द ने वेदों के सत्यस्वरूप का प्रकाश किया और वेदज्ञानयुक्त सत्यार्थप्रकाश आदि अनेक ग्रन्थ लिख कर वैदिक धर्म का पालन करने में लोगों का का मार्गदर्शन किया। वैदिक धर्म को अपनाकर ही मनुष्य के जीवन की सर्वागीण उन्नति होती है। ईश्वर व सृष्टि विषयक सभी रहस्यों का सत्य व यथार्थ ज्ञान होता है। हमें जीवन को वैदिक धर्म के अनुसार व्यतीत करते हुए धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को प्राप्त होकर उसे सफल करना चाहिये। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य