ग़ज़ल – ठीक नहीं
अमरबेल की फसल उगाना ठीक नहीं
अब साँपों को दूध पिलाना ठीक नहीं ।
जिनको ज्ञान नहीं है सुर और तालों का
आँगन में उनको नचवाना ठीक नहीं ।
माना कि ये दौर है फैशन का भाई
इसकी टोपी उसे लगाना ठीक नहीं ।
ये जूतों की भाषा ही पहचानेंगे
भैंस के आगे बीन बजाना ठीक नहीं ।
रंगे सियारों की बस्ती में मेला है
इनको गिरगिट से मिलवाना ठीक नहीं ।
सावन के अंधे हैं ये आँखों वाले
इनको सूखे खेत दिखाना ठीक नहीं ।
अनावरण ही जहाँ सभ्यता कहलाये
नंगों को कपड़े पहनाना ठीक नहीं ।
आज अंगूठा नहीं कलम सिर होता है
बार-बार मूरत बनवाना ठीक नहीं ।
आसमान पर जब गिद्धों का पहरा हो
चिड़ियों से दाने चुगवाना ठीक नहीं ।
फन कुचलो, मारो-काटो, टुकड़े कर दो
पर लकीर को बाद पीटना ठीक नहीं ।
जहाँ नाचती मौत दरों – बाज़ारों पर
घी के दीपक वहाँ जलाना ठीक नहीं ।
ईंट बजा दो दुश्मन की तुम कंकर से
मगर विभीषण घर में लाना ठीक नहीं ।
कान खड़े हो जब ‘शरद’ दीवारों के
मन से मन की बताना ठीक नहीं।
— शरद सुनेरी