होलिका दहन से जुड़ी कुछ बाँते…..
होली के दिन मनु का जन्म हुआ था ऐसा कुछ पुस्तकों में वर्णित है। इसलिए इसे मनवादितिथि भी बोलते हैं। रंग से इसका कोई सरोकार नहीं है। रंग वाले दिन को दुल्हॉडी कहते हैं। यह प्रथा बाद में बनी है। जिस दिन जलाई जाती है वह दिन विशेष माना जाता है। पुराने समय में इसका सीधा संबंध यज्ञ से माना जाता था।
होली ऋग्वेद काल से मनाई जाती है, लेकिन तब इस प्रकार से नहीं मनाई जाती थी, जिस प्रकार से आज़ मनाई जाती है। रंगो का प्रयोग उस समय नहीं होता था। उस समय इस दिन यज्ञ किया जाता था। जिसे नवायेष्टि यज्ञ कहा जाता था। यानि इस दिन ‘नया अन्न’ से पूजा की जाती थी। नया अनाज़ खेतों में तैयार हो जाता था तो सबसे पहले यह अन्न देवताओं को अर्पित किया जाता था। यह जलाया नहीं जाता सिर्फ़ भूना जाता है।
आजकल के समय में तो यज्ञ समाप्त ही हो गया है। इसकी जगह दिखावटी मोटी-मोटी लकड़ियों के गट्ठर ने ले ली है। आजकल यह भी देखने में आया है कई जगह पर कि कई गुटों में तो होड़ लगी होती है कि ‘तेरा गट्ठर मेरे गट्ठर से मोटा क्यों? सबसे पहले तो आपको यह समझना पड़ेगा कि ख़ाली लकड़ियों को जलाने से कुछ नहीं होता। त्योहार पूरा होता है श्रद्धा भाव से। जिसके लिए यज्ञ में दो लकड़ियाँ भी काफ़ी होती हैं।
इसलिए अबकी बार से ही यज्ञ प्रारंभ करें और उसमें लौंग, कपूर, देसी घी, गाय के गोबर के कंडे, इलाइची और जावित्री के फूल अगर सहूलियत से मिल जाएं तो जरूर डालें। ताकि हम अपने वातावरण को प्रदूषण मुक्त बनाने में मदद कर सकें और कोरोना वायरस में भी कमी ला सकें।
आपने इस साल देख ही लिया होगा कि प्रकृति से छेड़छाड़, अपने बड़ों का अनादर, अपनी मनमानी और रीति-रिवाजों में नयापन कितना महंगा साबित हुआ है।
तो क्यों न इस बार की होली अपनी पुरानी परंपरा को अपनाते हुए, यज्ञ के साथ, अपनों के बीच रहकर हर्षोल्लास से मनाई जाय?
होली की सभी को बहुत सारी शुभकामनाएँ। कोरोना अभी गया नहीं है। मास्क जरूर पहनें, होली खेलें मगर सावधानी से!
मौलिक लेख
नूतन गर्ग (दिल्ली)