महाभारत पर लघु-उपन्यास ‘उपसंहार’ की समीक्षा
महाभारत युद्ध के समापन की कहानी, अश्वत्थामा द्वारा किये गये पान्चालो और पाण्डवपुत्रो के संहार का वर्णन तथा सबसे अन्त में – अर्जुन और अश्वत्थामा द्वारा छोङे गये ब्रह्मास्त्रो के उपसंहार की चर्चा ने इस ‘उपसंहार’ नाम को इस प्रकार बहुत सोचने-समझने का अवसर दिया- इस उपन्यास की रोचकता ‘शान्तिदूत’ से किसी प्रकार कम नहीं होती!
महाराज धर्मराज युधिष्ठिर का यह विलाप अवश्य ही लिखा जाने योग्य है जब वे समस्त स्त्री जाति को शापित कर डालते हैं- ” मैं शाप देता हूँ कि भविष्य में कोई भी स्त्री अपने मन में किसी रहस्य को छिपाये रखने में समर्थ नहीं होगी !” इस प्रकार इस महाविनाशकारी युद्ध का उपसंहार या समापन हुआ !
श्री कृष्ण के अनुसार कुरुवंश के विनाश की पटकथा तो उसी दिन लिख दी गयी थी, जब आपकी राज सभा में महारानी द्रोपदी को अपमानित किया गया था और आप उसे नहीं रोक सके! महाराज! मैंने स्वयं राज सभा में दूत के रूप में आकर आपसे बार-बार कहा था कि इस विनाश को रोकना आपके हाथ में है, इसे रोकिए, परन्तु पुत्र -मोह में आपकी बुद्धि कुन्ठित हो गई थी! इसलिए आपने एक बार भी अपने पुत्र को नहीं रोका और उसके हाथ ही कठपुतली बने रहे! यदि आपने उस समय पुत्रमोह से निकलकर न्याय का सहारा लिया होता, तो आज आपको अपने मनःनेत्रों से अपने वंश का विनाश नहीं देखना पड़ता!
श्री कृष्ण की बातों का धृतराष्ट्र के पास कोई उत्तरा नहीं था! वे सिर नीचे किये हुए उनकी फटकार को सुनते रहे! धृतराष्ट्र को अपना कर्तव्य याद आने पर युधिष्ठिर से कहा कि जो विनाश होना था वह तो हो ही चुका है, अब युद्ध क्षेत्र में पडे योद्धाओ के शवों का उचित रूप से अन्तिम संस्कार करा देना चाहिए !
युद्ध क्षेत्र में पहुँच कर युधिष्ठिर, कुन्ती,विदुर,कृष्ण सहित ऐसी स्त्रियों को जो अपने पतियों, भाइयों और पुत्रों को याद करके विलाप करने लगीं! उपलव्य नगर से द्रोपदी,उत्तरा आदि नारियाँ पहले ही कुरुक्षेत्र में जब विलाप करने लगीं, उन्हें सान्त्वना देने लगे!
कुरुकुल की पूत्रवधुओ और पुत्रवधु का विलाप सुनकर गान्धारी का रोष कृष्ण पर ही उतरा !वे बोली,”वासुदेव ! तुम शान्ति कराने का ढोंग करते हुए आये थे,परन्तु वास्तव में तुमने एक बार भी युद्ध रोकने का प्रयास नहीं किया!”
श्री कृष्ण ने उनकी बात का कोई प्रतिवाद नहीं किया, मौन होकर शान्त -भाव से हाथ जोङकर सिर्फ़ इतना बोले -“महारानी ! आपने मुझे जो शाप दिया है, मैं उसे स्वीकार करता हूँ!ऐसा ही होना उचित होगा!मैं तो स्वयं चिन्तित था कि मेरे महाप्रतापी भाई- बन्धु यदि उच्छृंखल हो गये, तो उनको कोई नहीं रोक पाएगा और वे सारे संसार को पीङित कर देंगे !आपने यह शाप देकर मुझे चिन्तामुक्त कर दिया है!यह शाप नहीं वरदान है !”
श्री कृष्ण की विनम्रता देख, गान्धारी का रोष समाप्त ही नहीं हुआ बल्कि पश्चाताप के बाद वे कृष्ण से क्षमा मांग कर शाप को लौटाने की बात भी कहने लगीं! श्री कृष्ण ने कहा,” महारानी ! इसमें आपका कोई दोष नहीं है, यह शाप विधि अनुकूल ही हुआ है। ”
जब गुरुकुल के राजकुमार के शव एकत्र किए जा रहे थे, तब महारानी कुन्ती भी वहीं थीं जब उन्होंने युधिष्ठिर से कहा,”पुत्र!अंगराज कर्ण के शव को भी यहीं लाकर उनका दाह संस्कार भी इनके साथ ही करो !”
युधिष्ठिर ने माँ के वचनों के उत्तर में कहा, “माँ, सूतपुत्र का अन्तिम संस्कार क्षत्रिय वीरों के साथ नहीं किया जा सकता! उसकी अलग से विधिपूर्वक अंत्येष्टि की जाएगी!”
तब जो कुछ धर्मराज युधिष्ठिर ने अपनी माँ के श्रीमुख से सुना वह आश्चर्यचकित कर देने वाला रहस्य तो था ही, युधिष्ठिर द्वारा समूची नारी जाति को शापित कर डाला कि ‘वे किसी भी रहस्य को छिपाये रखने में समर्थ नहीं होगी!
कुन्ती महारानी ने युधिष्ठिर के समक्ष कहा,” वह सूत पुत्र नहीं है, पुत्र ! वह तुम्हारा ही बङा भाई है! वह मेरी कुमारावस्था की संतान है !”
इतना सुनते ही महाराज युधिष्ठिर हतप्रभ रह गये! वे जानते थे कि उनकी माँ कभी भी असत्य नहीं बोलतीं! घोर निराशा की स्थिति में वे मात्र इतना ही कह सके,”यदि मुझे पता होता कि अंगराज कर्ण हमारे सगे सहोदरा भ्राता हैं, तो मैं उनसे कभी भी युद्ध न करता ! हमने अपने सगे भाई का वध करके बड़ा पाप किया है।
सभी राजपुत्रो का अन्तिम संस्कार कर दिए जाने के बाद उन सैनिकों का भी सामूहिक दाह संस्कार कर दिया गया, जिनको पहचाना नहीं जा सका था या जिनका कोई परिवारी वहाँ उपस्थित नहीं था!
हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि ‘उपसंहार ‘ यद्यपि लघु-उपन्यास ही सही लेकिन इसे श्री विजय कुमार सिंघल के पूर्व उपन्यास ‘शान्तिदूत’ के साथ ही पढा जाना अनिवार्य कर देना चाहिए- तभी तार-तम्यता बनी रहेगी!”
हमारी अशेष शुभकामनायें, लेखक के साथ हैं!
— देवकी नन्दन ‘शान्त