मैं स्ट्रीट फूड वाला
मैं स्ट्रीट फूड वाला
सब कहते-लिखते मजदूरों का दर्द,
बनते किसानों के भी हमदर्द,
पर नहीं देखा मेरी ओर किसी ने,
तपते सूरज तले रहता खड़ा,
तंग गली-गूचों में आजीविका कमाता,
कभी किसी आलीशान,
ऊँचे नवाबी ठिये के बाहर,
सारा दिन की जी तोड़ मेहनत से,
कमाई लक्ष्मी का सिर्फ चौथा भाग ही रख पाता |
बड़ी-बड़ी गाड़ियों में बैठ,
बाइक पर बैठ, स्कूटर पर बैठ,
लोग मेरे ताज़े बने हुए
कुल्चे, भटूरों, ब्रेड पकौड़ों, समोसों,
चाउमीन, स्प्रिंगरोल, बर्गर, डोसे,
और न जाने कितनी खाने-पीने की चीजों का,
कम पैसों में लुत्फ उठाते,
सब खुश हो घर जाते !
अचानक से हादसे की तरह प्रवेश करते,
जैसे पोलिस कमेटी वाले,
एकदम से गायब कर देते,
सब्जी-फलों की रेड़ियाँ,
देखते ही देखते तर्पाल गिरा देते,
मेरे जैसे न जाने कितने स्ट्रीट फूड वाले,
जो डेली वेजिस पर ही,
दे पाते हैं दो वक्त की रोटी,
अपने राह निहारते बच्चों को
महामारी के खौफ से
हम कैसे हैं, कहाँ हैं ?
ये किसी राहगीर ने नहीं जाना
देखा बुरे वक्त में,
कौन अपना कौन बेगाना,
किसी ने मेरा दर्द न जाना
पर फिर भी मैं खुश हूँ,
प्रेम से वैसे ही परोसता हूँ खाना,
पेट भर,चंद रुपये दे जाते हैं,
सब अपनी-अपनी भूख मिटाने मेरे पास आते हैं
— भावना अरोड़ा ‘मिलन’